बुधवार, जुलाई 07, 2010

देस-दुनिया: भारतीय रेल का विशेष भण्डारण कक्ष अभी तक हमने अपन...

देस-दुनिया: भारतीय रेल का विशेष भण्डारण कक्ष


अभी तक हमने अपन...
: "भारतीय रेल का विशेष भण्डारण कक्ष अभी तक हमने अपनी रेल यात्रा में कभी ऐसी चीज़ देखी नहीं होगी! आज आपको दिखाते हैं भारतीय रेल के पैंटी कार म..."

शनिवार, फ़रवरी 13, 2010


प्यार के वारदात होने दो......

अभी प्रेम दिवस से पहली शाम को बेंगलुरु में एक हादसा हो गया। शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना की तर्ज़ पर बने विवादस्पद संगठन श्रीराम सेना के मुखिया प्रमोद मुतालिक का मुंह काला हो गया। ये घटना तब हुई जब श्री मुतालिक वैलेन्ताइन्स डे पर होने वाली एक बहस में हिस्सा लेने वाले थे. इससे पहले कि श्री मुतालिक कुछ कहें, कुछ युवा प्रेमियों ने उन्हें मंच से उतर उनके मुंह पर कालिख पोत दी. बेचारे श्री मुतालिक....अभी पिछले साल ही तो 'प्रेम के दिन' इन्होंने कुछ प्रेमी युगलों की पिटाई कर अपनी विशेष पहचान बनाई थी. प्रेम के दिन के पहले ही इस तरह के हादसों को देखते हुए पूरे देश ख़ास कर महानगरों की पुलिस अभी से ही चौकस हो गयी है.

बाज़ारवाद : वैलेंटाइन डे की जननी
वर्तमान पत्रकारिता की अमर ज्योति और महान लेखक प्रभास जोशी कहते थे - " वैलेंटाइन डे की जननी बाज़ारवाद है. ये न तो हमारी सभ्यता से जुड़ा है, न ही हमारी संस्कृति से इसका कोई सरोकार है." यह बात सौ फीसदी सही है. कुछ निजी कंपनियों ने अपने फायदे के लिए वैलेंटाइन डे का इतना प्रचार प्रसार किया कि ये हमारी जिंदगी का एक अहम हिस्सा बन गया. जाने-अनजाने में सही लेकिन इस काम में उनका साथ मीडिया ने भी बखूबी निभाया. फिल्मों के माध्यम से प्रेम के इजहार करने का ये विशेष दिन आँखों के रास्ते दिल में उतर गया. अब तो हर आदमी, चाहे वो आम हो या ख़ास, वैलेंटाइन डे के बारे में जानता है.

चिंता या चिंतन
सवाल उठता है कि "क्या वैलेंटाइन डे सचमुच चिंता का विषय है?" क्या ये ख़ुशी का दिन नहीं है! प्रेम तो जीवन के लिए उतना ही ज़रूरी है जैसे खाने के लिए अन्न, साँस लेने के लिए हवा और पीने के लिए पानी. दूसरे शब्दों में कहें तो प्रेम हमारे आत्मस्वरुप की अभिव्यक्ति है. प्रेम से हम हैं और हम से प्रेम.

प्रेम है शाश्वत, लेकिन आज के दौर में इसकी अभिव्यक्ति क्षणिक हो गयी है. ये है तो निर्विकार, लेकिन इसका वर्तमान स्वरूप विकृत हो गया है.

प्रेम का वास्तविक स्वरुप
यदि प्रेम है तो सब से है और सब के लिए है. अगर ऐसा नहीं है तो ये कुछ देर का आकर्षण है. फिर ये प्रेम नहीं है...भावनाओं का आंशिक खिचाव है.

प्रेम और सेक्स में सम्बन्ध
आज के समय में प्रेम और सेक्स एक-दूसरे के पूरक हो गए हैं. इन परिस्थितियों में सेक्स-संबंधों को समझना बहुत ज़रूरी है.

मेरी समझ में सेक्स 'पूर्ण समर्पण' है 'एक प्राणी का दूसरे के लिए'. अगर एक औरत किसी से शारीरिक सम्बन्ध बनाये तो इसके तीन ही वजह हो सकती हैं....पहला ये कि वो उसके प्रति समर्पण के उस स्तर तक पहुँच कि आपस में कोई पर्दा रखने की जरूरत नहीं रही. यानि औरत का उस आदमी के प्रति विश्वास इतना गहरा हो गया कि उसने अपना स्वाभिमान जो किसी भी औरत के लिए सर्वोपरि होता है, आदमी के हवाले कर दिया. दूसरा ये कि वो कामातुर है जिसकी वजह से उसे जिस्मानी-सम्बन्ध बनाने की जरूरत पड़ी. और तीसरा ये कि वो मानसिक रोगी है. ये सारी बातें कुछ हद तक मर्दों के लिए भी लागू होती हैं.

अमर है प्रेम
रूह की तरह प्रेम भी अजर-अमर है. कोई ये कहे कि आज के समय में प्रेम मर चुका है या आज की युवा पीढ़ी को प्रेम समझ में नहीं आता और प्रेम तो हमारे ज़माने में होता था, तो ये सब उसकी निजी ज़िंदगी की निराशा है. या तो उसे अब तक प्रेम करने का मौका नही मिला या मिला भी तो उसने सामाजिक बंधनों को तरजीह दी और खुद को सही और ग़लत की कसौटी पर कसता रहा. अपने आप को समाज में शरीफ दिखाने के चक्कर में खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली और प्रेम से दूर होता चला गया.

भौतिकता से आध्यात्मिकता की ओर
प्रेम का असली स्वरूप तो आध्यात्मिक है. हमें इसकी भौतिकता का अहसास आम-जनजीवन में होता रहता है लेकिन इसके आध्यात्मिक स्वरूप का आभास कभी-कभी ही होता है. हमारे पड़ोसियों का हमसे हाल-चाल पूछना भी आध्यात्मिक प्रेम की भौतिक अभिव्यक्ति है. इसकी आध्यात्मिकता को समझने के लिए ज़माने की वास्तविकता को जानना होगा, उसपर विचार करना होगा. इसी रास्ते हम अपने आनंदमय स्वरूप तक पहुँच सकते हैं और प्रेम की अध्यात्मिकता को आत्मसात कर सकते हैं.

तीनों बुद्धिजीवियों से अनुरोध
अंत में एक बार फिर श्री मुतालिक से जुड़ी घटना को देखते हुए प्रेमियों में बढ़ती हिंसा, असहिष्णुता और ग़ैर-ज़िम्मेदाराना हरकतों के प्रति चिंता व्यक्त करता हूँ. और बाला साहब ठाकरे के साथ-साथ उनके नक्शेकदम पर चल रहे राज ठाकरे से अनुरोध करता हूँ कि कम से कम इस प्रेम दिवस पर अपने मानुसों को उनके अस्तबल से न निकलने दें. अन्यथा किसी भी दुर्घटना की नैतिक ज़िम्मेदारी न तो प्रशासन लेगी और न ही देश के युवा.





रविवार, जनवरी 03, 2010

ये कैसी ब्रॉड थिंकिंग है!
कल के दैनिक भास्कर अखबार का पन्ना पलटते हुए मेरी नज़र एक खबर पर टिक गई। वो था "चीन: इन्टरनेट पोर्नोग्राफी में ५००० गिरफ्तार". इस खबर के अनुसार चीनी सरकार ने ९००० अश्लील वेबसाइटस पर पाबन्दी लगा दी है. इसके इस्तेमाल की जानकारी देने वालों को १५०० डॉलर का ईनाम भी घोषित किया गया है. चीनी सरकार का कहना है कि ऐसा वे सुरक्षा और नैतिक कारणों से कर रहे हैं और वे नहीं चाहते कि इन्टरनेट के बहाने समाज में अश्लीलता फैले.

नैतिकता की बात पढ़ कर मुझे अपने एक नव-परिचित बैंकर मित्र से हाल ही में "वेश्यावृत्ति को कानूनी बनाने" के मसले पर हुई बहस की याद ताज़ा हो गयी। मेरे मित्र इसे कानूनी बनाने के पक्ष में थे. मेरा सवाल था कि भारत जैसे देश में वेश्यावृत्ति क्या इतनी गंभीर समस्या बन गयी है कि इसे कानूनी जामा पहनाने की जरूरत पड़ सकती है? क्या सेक्स आदमी की इतनी बड़ी जरूरत के रूप में उभर कर सामने आया है कि विवाह जैसी सामाजिक व्यवस्था में रहने के बावजूद उसका वेश्यालयों में जाना अनिवार्य हो गया है?
मेरे मित्र इस बात से सहमत नहीं हुए। उनका मानना है था कि नैतिकता से जुडी सामाजिक अवधारणाओं को ध्यान में रखते हुए यदि वेश्यावृत्ति को कानूनी नहीं बनाया जाता तो यह किसी आदमी के साथ भी नाइंसाफी होगी. नैतिकता का रोना रोते हुए हम आम आदमी को यह स्वतंत्रता नहीं देते तो डेमोक्रेसी का कोई मतलब नहीं है और ऐसे विचारों को संकीर्ण मानसिकता वाले लोग ही सपोर्ट करते हैं. उनका कहना था कि भारत में बड़ी संख्या में लोग घूमने-फिरने या काम के बहाने थाईलैंड जाना पसंद करते हैं. ये बात जगजाहिर है कि थाईलैंड वेश्यविरित्ति के मामले में दुनिया भर में अपनी अलग जगह बना चुका है. सबसे मजेदार बात यह है कि वेश्यावृत्ति थाईलैंड की अर्थव्यवस्था की रीढ़ बन गयी है.
मैंने उनसे पूछा कि क्या सेक्स हमारी वैसी ही जरूरत बन चुकी है जैसे हमें २४ घंटे में कम-से-कम दो बार भोजन की जरूरत होती है? मेरा मानना है कि यदि नैतिकता को धारण किये हुए ही सही या असमाजिक या व्यभिचारी कहलाने के डर से ही सही, आदमी इस जरूरत को सीमित रखता है तो सेक्स कभी समस्या बनेगी ही नहीं और वेश्यावृत्ति को कानूनी बनाने का सवाल ही नहीं खड़ा होगा।
उन्होंने मुझे "नैरो माइंडेड" का खिताब दे कर इस बहस से खुद को किनारा कर लिया। मैंने भी इस बहस को यहीं विराम देना उचित समझा लेकिन एक सवाल मेरे जेहन में अभी भी है....वो ये कि "क्या नैतिकता को आज की युवा पीढ़ी किताबी बातें और ढ़कोसला समझती है?" यदि नहीं तो मुझे अपनी मानसिकता को "ब्रॉड" बनाने के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी.

शुक्रवार, जनवरी 01, 2010


बुधवार, मई 13, 2009

राम के आडवाणी या आडवाणी के राम!
कुछ समय पहले तक ये बात मेरी समझ में नहीं आ रही थी कि राजनेताओं के कुर्सी प्रेम की इस कहानी की शुरुआत कहाँ से की जाये। पहले भाजपा से शुरू करून जिसका समर्थन करना वर्त्तमान परिस्थितियों को देखते हुए फायदेमंद हो सकता है या अपने गुजरे हुए समय यानि त्रेतायुग से जहाँ पहुंचते ही महर्षि वाल्मीकि और हनुमान जी के दर्शन होते हैं. वैसे इन तीनों में एक समानता है कि राम की बात तीनों ही करते हैं. अब शुरुआत तो कहीं न कहीं से करनी ही है, तो चलिए राम का नाम ले कर शुरू करते हैं राम मंदिर के पुनर्निमाण का बीड़ा उठाने वाले भाजपा के वरिष्ठ नेता और पीऍम इन वेटिंग लालकृष्ण आडवाणी से।

हम सभी इस बात से परिचित हैं कि श्रीराम तो अवध के राजा थे ही और सनातन धर्म के अनुसार उन्हें ईश्वरीय अवतार माना जाता है, तो पूजे जाने के योग्य तो वे हैं हीं। अब आप पूछेंगे कि आडवाणी से राम का क्या मतलब? लेकिन आडवाणी को राम से तो मतलब है ही. आडवाणी जी शुरुआत से ही राम नाम का जप करते रहे हैं. उनके इस नाम जप ने भी अपना असर दिखाया और अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए रथ यात्रा के रूप में आडवाणी का अपना सिक्का जमाने का प्रयास भी सफल रहा. " सौगंध राम की खाते हैं, हम मंदिर यहीं बनायेंगे, हम मंदिर भव्य बनायेंगे" के नारे के साथ कारसेवक बाबरी मस्जिद/मंदिर के विवादित ढांचे पर चढ़ गए. उनमें राम लला के नाम का उन्माद देख कर ऐसा लगता था कि सबके ऊपर साक्षात् काली विराज रही हों, पर बुद्धि तो सबकी कालिदास वाली हो गयी थी. इसका प्रमाण ऐसे मिलता है कि ढांचे के गुम्बद पर चढ़ कर लोगों ने उसे ही तोड़ना शुरू कर दिया. इस क्रम में सैकडों कारसेवक जख्मी हो गए और उनमें से कई इस जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो इस मृत्युलोक से छूट कर सीधे ब्रह्मलोक पहुँच गए.

वैसे राम मंदिर निर्माण और वहां विधिवत पूजा-पाठ का मुद्दा तो कांग्रेस का होना चाहिए था। ऐसा इसलिए क्योंकि इस विवादस्पद मंदिर/मस्जिद का ताला खुलवाने का काम तो तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने किया था और सभी इस बात से भली-भांति परिचित हैं कि राजीव गाँधी का नाता भारतीय जनता पार्टी से न हो कर कांग्रेस से था। लेकिन अफ़सोस, सेक्युलरिज्म को जिन्दा रखने वाली और अल्पसंख्यकों की मसीहा कांग्रेस इस मुद्दे को कैसे अपना सकती थी.

बाबरी मस्जिद तोड़ना आडवाणी के जीवन की सबसे बड़ी दुर्घटना की तरह है। इसका प्रमाण आडवाणी द्वारा लिब्राहन आयोग के सामने दिए गए उत्तर में मिलता है। आयोग के सामने आडवाणी ने इसे एक दुर्घटना माना और इसे अत्यंत दुखद करार दिया. इसमें भी आडवाणी पर राम नाम का प्रभाव साफ देखा जा सकता है. शायद आडवाणी उस समय मानसिक संप्रेषण शक्ति का प्रयोग कर कारसेवकों के मन में एक ही बात डालने की कोशिश कर रहे होंगे कि "(चढ़ जा बेटा सूली पर) भला करेंगे राम".

इस यात्रा के बाद ही भाजपा का "मत से थोड़ा आगे बढ़ कर बहुमत पाने का सपना" साकार होता नज़र आने लगा। भाजपा प्रत्याशी सड़क से संसद तक पहुँच गए। जहाँ अब तक संसद में भाजपा के 2 सदस्य हुआ करते थे, अब उनकी संख्या बढ़ कर ८० से ज्यादा हो गयी.

कहते हैं कि "राम से बड़ा राम का नाम"। और यह बात आडवाणी जी को शायद बहुत पहले समझ में आ गयी थी। लोकसभा चुनावों में सीटों की संख्या में बढोत्तरी होते देख आडवाणी का राम प्रेम तो कम होता दिखा लेकिन नाम प्रेम और बढ़ गया. श्रीराम के आशीर्वाद से २७ दलों के गठबंधन के साथ ही सही लेकिन भाजपा के नेतृत्व में केंद्र में सरकार का गठन तो हो ही गया. फिर क्या बचा था -

अजगर करे ना चाकरी, पंछी करे न काम।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।

खैर, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार ५ सालों तक चलती रही और आडवाणी जी का राम पर विश्वास अडिग हो गया। देश भी राम भरोसे चलता रहा। इसमें भी आडवाणी का राम पर विश्वास दिखाई देता है.

तुलसी भरोसे राम के, निर्भय हो कर सोए।
अनहोनी होनी नहीं, होनी होय सो होए।

लेकिन साल २००४ के लोकसभा चुनावों में सत्ता तो भाजपा के हाथ से निकल ही गयी। अटल जी ने तो संन्यास ले कर अपना दमन बचने की कोशिश की या कुर्सी उन्हें मजबूरी में छोड़नी पड़ी और अपने पुराने जनसंघी साथी और मित्र आडवाणी जी के लिए जगह तो खाली करनी ही थी। खैर, अभी भी सबकुछ राम भरोसे ही है.

२००९ के इन लोकसभा चुनावों में भी आडवाणी ने एक बार फिर राम नाम का अलाप करना शुरू कर दिया और इस बार तो उनका प्रमुख निशाना बनी देश की युवा पीढ़ी। कर्नाटक की भाजपा सरकार ने तो अपने राज्य के महाविद्यालयों में छुट्टी दे दी कॉलेज स्टूडेंट्स को आडवाणी जी के चुनाव सभाओं तक बाइज्जत पहुंचाने की जिम्मेदारी कॉलेज शिक्षकों और प्रिंसिपल को सौंप दिया गया। इस तरह के माहौल में विश्वविद्यालय प्रशासन और छात्र दोनों ही दुविधा में पड़े दिखाई दिए. कॉलेज प्रशासन को राज्य सरकार को जवाव देना था और अपने यहाँ पढ़ने आये छात्रों के प्रति भी उनकी जवावदेही बनती थी.

अब रहीम मुश्किल पड़ी, गाढ़े दोउ काम।
सांचे से तो जग (आडवाणी) नहीं, झूठे मिलै न राम।

इस घटना की स्टूडेंट्स के बीच मिली-जुली प्रतिक्रिया देखने को मिली। अब कॉलेज के विद्यार्थियों का खून तो गर्म होता ही है। उन्होंने खुल कर इस घटना पर अपनी नाराजगी दर्ज की और कई कॉलेज प्राध्यापकों ने भी दबी ज़बान से आडवाणी जी की भर्त्सना की. राम, राम, राम, राम! वैसे कर्नाटक सरकार की इस मुहिम का असर कितना सकारात्मक साबित होता है, अभी तो ये राम ही जाने लेकिन १६ मई को तो जनता जान ही जायेगी!

आज आडवाणी जब फिर से राम नाम का अलाप कर रहे हैं तो हमारे समाज के भिन्न-भिन्न वर्ग के लोग कई तरह के सवाल करते नज़र आ रहे हैं -

क्या कलयुग में श्रीराम सचमुच इतने कमज़ोर हो गए हैं कि उन्हें अपना मंदिर बनवाने के लिए आडवाणी जी पर आश्रित रहना पड़ रहा है?

क्या बहुसंख्यकों को अपने राम का ध्यान नहीं रहा?

क्या कारसेवकों का प्रयास, उनकी कुर्बानियां व्यर्थ हो जायेंगी?

क्या कारसेवकों की लाश पर राजनीति करने वालों को दंड नहीं मिलेगा?

क्या बहुसंख्यकों की धार्मिक भावनाओं से खेलने वाले राजनेताओं ने हमारी सहिष्णुता, हमारी सहनशक्ति को हमारी कमजोरी समझ ली है?

क्या अयोध्या में रामलला का मंदिर बनाने का सपना अधूरा ही रह जायेगा?

वैसे इस बुढ़ापे में बेचारे आडवाणी जी को कम कष्ट नहीं है। एक तो प्रधानमंत्री बनाने का अधूरा ख्वाब उन्हें रह-रह कर सताते रहता है, साथ ही राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा में उभरते हुए नए नाम नरेन्द्र मोदी ने भी उनकी रातों की नींद उड़ा दी है.

अब भाजपा में यह प्रश्न उठने लगा है कि आडवाणी के बाद पीम इन वेटिंग कौन होगा? तो पार्टी में कई नाम शुष्मा स्वराज, राजनाथ सिंह जैसे कई और नाम उभर कर सामने आये। लेकिन गुजरात की जनता की आवाज भी राम तो सुन ही रहे थे, सो वे अरुण शौरी की ज़बान से बोल पड़े और नरेन्द्र मोदी के नाम का भूत फिर से आडवाणी जी के सामने आ कर खड़ा हो गया. वैसे भाजपा में अब ऐसा व्यक्तित्व कहाँ रह गया है जिसे पार्टी का सपोर्ट न मिलने के बावजूद और पार्टी के दिग्गजों द्वारा विरोध किये जाने के बाद भी गुजरात की जनता ने अपना मुख्यमंत्री चुना. अब गुजरात में जौहरियों की क्या कमी और हीरे को तो जौहरी ही परख सकते हैं. भाजपा अकारण ही परेशान हो रही थी।

कस्तूरी कुंडली बसै, मृग ढूंढें बन माहीं।
वैसे घट-घट राम (नरेन्द्र मोदी) हैं, दुनिया देखहिं नाहीं।

अब ८१ वर्ष की उमर वाले आडवाणी जी के दिल पर इतना बोझ डालना भी ठीक नहीं है. राम के नाम से तो कभी डाकू रहे वाल्मीकि का भी उद्धार हो गया. राम के नाम से कबीर हद से अनहद चले गए. महात्मा गाँधी भी राम का नाम लेते हुए मोक्ष पा गए. तो क्या आडवाणी जी को राम नाम लेने से देव स्थान भारतवर्ष के प्रधान मंत्री की तुच्छ कुर्सी भी नहीं मिल सकती!

बुधवार, मार्च 25, 2009

ये कौन सा दयार है?

भारत में आजकल चुनाव का मौसम है। १५वीं लोकसभा के गठन के लिए होने वाले इन चुनावों में बनते-बिगड़ते राजनीतिक समीकरणों को साफ़ देखा जा सकता है. हाल ही में एक चुनावी सभा में वरुण गाँधी का सांप्रदायिक बयान जहाँ फिर से भाजपा की पुरानी सांप्रदायिक नीतियों की तरफ संकेत देता है, वहीँ कांग्रेस का (कटा) हाथ आम आदमी के साथ रखने का दावा बरकरार है. वामपंथी पार्टियाँ तीसरे मोर्चे के गठन के बाद खुशियाँ मना रही हैं, लेकिन चुनाव के परिणामों को लेकर चिंता की लकीरें कामरेड्स के माथे पर साफ़ दिखाई दे जाती हैं. सबको बस यही चिंता सता रही है कि कुर्सी कैसे मिले?

वैसे आज़ादी के पहले राजनीतिक पार्टियों का स्वरूप कुछ और ही था. सभी पार्टियों का एक ही मकसद था "भारत की आज़ादी". इंडियन नेशनल कांग्रेस के अंतर्गत ही सोसलिस्ट पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी हुआ करती थी. यदि कोई सोसलिस्ट पार्टी का सदस्य बनना चाहता था तो कांग्रेस पार्टी की सदस्यता उसके लिए अनिवार्य थी. कम्युनिस्ट पार्टी के साथ भी कुछ ऐसा ही था। लोगों को जो विचारधारा पसंद आती, वे पार्टी के उसी धडे से जुड़ जाते थे.

जैसे-जैसे आज़ादी का वक़्त करीब आता गया, इंडियन नेशनल कांग्रेस में विचारधारा का अंतर मुखर होता गया और आपसी मतभेद उभर कर लोगों के सामने आने लगे. देश के स्वतन्त्रता अन्दोलानों में अग्रणी भूमिका निभाने वाले राष्ट्रपिता महत्मा गाँधी का कद भी आज़ादी मिलते ही बौना नज़र आने लगा. आज़ादी के बाद गाँधी जी इंडियन नेशनल कांग्रेस को भंग करना चाहते थे. उनका मानना था कि जब इंडियन नेशनल कांग्रेस ने अपना ध्येय प्राप्त कर लिया है तो अब उसे भंग कर किसी और नाम से एक राजनैतिक पार्टी बनाई जानी चाहिए जो देश में आर्थिक विषमताओं को दूर कर एक स्वच्छ और उन्नत समाज के निर्माण में सहायक हो. लेकिन पंडित जवाहरलाल नेहरु और सरदार वल्लभभाई पटेल सरीखे कद्दावर नेताओं नें निजी स्वार्थ के लिए इंडियन नेशनल कांग्रेस का नाम बदल उसे 'कांग्रेस' के नाम से आजाद राजनैतिक दल बनाये रखना उचित समझा. सोने की चिडिया कहलाने वाले इस देश को साम्प्रदायिकता की आग में झोंक दिया गया और निजी राजनैतिक स्वार्थ के लिए देश के दो टुकड़े कर दिए गए. अपने अबतक के जीवन काल में, शायद पहली बार, महात्मा गाँधी अपने आपको निरीह महसूस कर रहे होंगे।

गाँधी के इस कमज़ोर स्वरूप को 'समय' भी नहीं देखना चाहता था. ३१ जनवरी १९४८ के दिन यमराज भी आये तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक नाथूराम गौडसे के रूप में जिसने अपने खोखले आदर्शों और संकीर्ण विचारधारा के कारण गरीबों और दलितों के मसीहा गाँधी की हत्या कर दी।

भारत के स्वतंत्रता आंदोलनों में हिस्सा लेने और उनके त्याग के लिए देश जहाँ नेहरु परिवार का ऋणी था, वहीँ आज़ादी के बाद जवाहरलाल नेहरु की वजह से हमारे देश को भरी कीमत चुकानी पड़ी. शांति के कपोत(कबूतर) उडाने वाले नेहरु के कारन भारत को चीन के सामने घुटने टेकने पड़े और देश ने लालबहादुर शास्त्री जैसा एक दूरदर्शी और कुशल प्रधानमंत्री खो दिया. नेहरु जी ने देश के विकास के लिए रूस को अपना मॉडल बनाया जबकि विशेषज्ञों के अनुसार भारत की आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियां रूस से तनिक भी मिलती-जुलती नहीं थी जिसकी वजह से विकास के इस रूसी मॉडल को अपनाना भारत के हित में नहीं था।

कश्मीर मामला भी इन्हीं महान स्वतंत्रता सेनानियों की देन है. जब १९४७ में अंग्रेजों ने भारत के सभी रियासतों(जिनकी संक्या ५०० से भी ज्यादा थी) को आजाद घोषित कर दिया, तब तत्कालीन गृहमंत्री वल्लभभाई पटेल ने इन सबको एक साथ मिला कर फिर से एक राष्ट्र का स्वरूप देने का बीड़ा उठाया। सरदार पटेल का यह प्रयास एतिहासिक था और पूरा देश आज भी उन्हें लौहपुरुष के रूप में अपने दिलों में जिंदा रखता है. लेकिन जब पटेल ने अपनी कूटनीति के तहत कश्मीर के राजा हरी सिंह को अपने साथ मिला कर कश्मीर को कबाइलियों से मुक्त करने के लिए कश्मीर में जब सेना भेजी तो आपसी मतभेद के कारण नेहरु ने उनकी सैन्य कार्रवाई को बीच में ही रोक दिया. इसका खामियाजा भारत आज भी पाकिस्तान शासित कश्मीर के रूप में भुगत रहा है.

स्वतंत्रता मिलने के बाद सोसलिस्ट पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी के लोग कांग्रेस से अलग कर दिए गए। देश की बिगड़ती स्थिति और सरकार पर पूंजीवादियों के बढ़ते प्रभाव के बावजूद जब १९५२, ५७ और ६२ के आम चुनावों में कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत मिला, तब डॉक्टर राममनोहर लोहिया ने गैर-कांग्रेसवाद की रणनीति बनाई. उनकी एस विचारधारा से उनके दो करीबी सहयोगी मधुलिमाया और जौर्ज फर्नांडीज खुश नहीं थे. १९६३ में कलकत्ता के एक सम्मेलन में तो फर्नांडीज ने डॉक्टर लोहिया के खिलाफ जमकर आज उगला कि वो तत्कालीन जनसंघ और शिवसेना जैसे सांप्रदायिक संगठनों से हाथ कैसे मिला सकते हैं? बाद में इन्हीं जौर्ज फर्नांडीज ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार की कैबिनेट में रक्षा मंत्री जैसा अहम् पद संभाला जिसमें भारतीय जनता पार्टी, शिवसेना, बजरंग दल जैसे सांप्रदायिक संगठन शामिल थे.

अपने निधन के कुछ दिनों पहले दोकोटर लोहिया ने अपनी पत्रिका 'जन' के संपादकीय में समाजवादियों को सचेत करते हुए लिखा कि "राजनीति का साधारण कार्यकर्ता दर्शक हो गया है। वह चिपकू हो गया है और किसी न किसी बड़े नेता या मंत्री के साथ चिपके रहने में अपना कल्याण समझता है. वह अपने आपको किसी लायक नहीं बनता जबकि देश-विदेश की जानकारी और छोटी-बड़ी इत्तालायें और उनके विश्लेषण तथा सिद्धांतों के बारे में साधारण कार्यकर्ता को जानकारी होनी चाहिए, साथ ही उसे अपने कर्मक्षेत्र में भी कुछ करके दिखाना चाहिए. दरबारगिरी, चापलूसी और चुगलखोरी साधारण कार्यकर्ता के दुश्मन हैं, इसी के सहारे वह उठाना चाहता है और दूसरे उसकी नक़ल करने लगते हैं जिनके नतीजे बड़े कठिन होते हैं. यथास्थितिवाद का कफ़न भारत की राजनीति पर चढ़ गया है। सबलोग कुछ होना चाहते हैं, बन जाना चाहते हैं। कुछ करने की इच्छा प्रायः सबकी मर चुकी है और जिनमें है भी वह भी बहुत कमजोर हो चुकी है."

गरीबों, दलितों, पिछडे और अल्पसंख्यकों के मसीहा डॉक्टर लोहिया का ये बेबाकपन, एक महान सोच और अद्भुत कार्यशैली उनके मरने के साथ ही दफन हो गए।

इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में एक बड़ा सकारात्मक काम पंजाब से आतंकवाद का खत्म था लेकिन यही मामला उनकी मौत का बहाना बन गया. अपनी कैबिनेट के मंत्रियों के प्रति उनका रुख भी कुछ ज्यादा सख्त था. सूत्रों के अनुसार एक बार इंदिराजी के सचिव धवनजी ने किसी मंत्री को फ़ोन कर सूचित किया कि "हर हईनेस डिसायार्स, यू रिजाइन", तो दर के मारे मंत्री जी की धोती गीली हो गयी. इससे इंदिरा गाँधी के व्यक्तिव में तानाशाही की झलक भी मिलती है.


२५ जून १९७५ को उनके तानाशाही व्यक्तित्व को समूचे देश ने महसूस किया जब इंदिरा गाँधी ने अपने खिलाफ चल रहे इलेक्शन पेटिशन मामले में(सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग करने के मसले पर) इलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा अयोग्य करार दिए जाने के बावजूद प्रधानमंत्री की कुर्सी नहीं छोड़ी और पुरे देश में इमर्जेंसी लागू कर दिया.
इंदिरा गाँधी के इस पदलोलुपता को देखते हुए लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने देशव्यापी आन्दोलन छेड़ दिया। इस आन्दोलन को दबाने के लिए ही इंदिरा गाँधी ने देश में आपातकाल घोषित कर अपने विरोधियों को किसी-न-किसी बहाने जेल में डाल दिया.

१९९२ में बाबरी मस्जिद को गिरा कर साम्प्रदायिकता फैलाने और रामनाम को लोगों में बेंच कर सत्ता पाने वाली भारतीय जनता पार्टी की २७ दलों वाली गठबंधन सरकार ने विमान अपहरण मामले में कंधार जाकर आतंकवादियों को रिहा कर आतंकियों का मनोबल बढ़ा दिया। इन्ही के शासनकाल में देश की नाक "संसद" पर हमला हुआ। सियाचिन से भारतीय सेना को हटाकर शान्तिपाठ करने वाले कवि और तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने देश के सबसे बड़े पड़ोसी दुश्मन पकिस्तान से हाथ मिलाकर अंतर्राष्ट्रीय नोबल शांति पुरस्कार पाने का असफल प्रयास किया जिसके फलस्वरूप कारगिल में न जाने कितनी माँओं नें अपने बच्चे खो दिए और कितनी मांगें उजड़ गयीं। देश में आतंकी हमलों का जो सिलसिला १९९३ में बम्बई से शुरू हुआ, अटलजी के कार्यकाल में पला-बाधा और मनमोहन सिंह की सरकार में जवान हुआ, वो आज भी रुकता दिखाई नहीं दे रहा है. २००४ के लोकसभा चुनावों के बाद भी सुश्री जयललिता (जो दक्षिण भारत के फिल्मों की मशहूर अभिनेत्री रह चुकी हैं) जैसी महिलाओं के नेतृत्व वाली पार्टी के साथ गठबंधन करने वाले अटलबिहारी वाजपेयी(जिनका एक कथन बहुत मशहूर हुआ - "मैं अविवाहित हूँ, ब्रह्मचारी नहीं") ने बहुत निराश होकर कुर्सी छोड़ी.

इसके बाद सत्ता की बागडोर कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गाँधी के हाथों में आ गयी। प्रधानमंत्री का पद ठुकरा कर सोनिया त्याग की प्रतिमूर्ति बन गयीं और उनके पार्टी कार्यकर्ताओं द्वारा उन्हें भारतमाता के रूप में भी देखा जाने लगा। यह बात किसी से छुपी नहीं है कि कांग्रेस के पुराने खादिम डॉक्टर मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री तो बने लेकिन सत्ता की बागडोर सोनिया जी के हाथों में ही रही. वैसे, ये महज़ एक इत्तेफाक ही है कि सोनिया जी की तरह मनमोहन सिंह की भी भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी पर पकड़ थोडी कमजोर है, लेकिन मज़े की बात यह है कि हिन्दी का उच्चारण सोनियाजी और सिंह साहब एक जैसा ही करते हैं।

आज़ादी के स्वर्ण जयंती को मनाये हुए एक दशक बीत गया. बदलते समय के साथ बहुत कुछ बदला. नहीं बदले तो सिर्फ 'हम'. वही पुरानी सोच पीढ़ी दर पीढ़ी चली आई और हम भी उसी मानसिकता के साथ जी रहे हैं. हम में से हर एक अपने और अपने परिवार के भविष्य के लिए चिंतित दिखाई देता है. लेकिन उसका निर्धारण जहाँ होना है, उस स्वदेश के भविष्य की किसी को चिंता नहीं है. हमारे सामने "सत्ता की बागडोर किसे दें" प्रश्न उठता है तो उत्तर में उपलब्ध नेताओं में से किसी एक के नाम पर हम आंख बंद कर अपनी सहमति जता देते हैं, लेकिन हम भूल जाते हैं "इनमें से कोई नहीं" विकल्प को जो हमारे देश को एक अच्छी दशा और भारतीय राजनीति को एक नयी दिशा दे सकता है. जब कभी देश की वर्त्तमान स्थिति पर चर्चा होती है तो आजाद हिंद फौज के अधिकारी रहे और डॉक्टर राममनोहर लोहिया के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने वाले कैप्टन अब्बास अली की ऑंखें नम हो जाती हैं और वे कहते भरी मन से कहते हैं-

समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिन्दोस्तान वालों,
तुम्हारी दास्ताँ तक भी न होगी दास्तानों में।