प्यार के वारदात होने दो......
अभी प्रेम दिवस से पहली शाम को बेंगलुरु में एक हादसा हो गया। शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना की तर्ज़ पर बने विवादस्पद संगठन श्रीराम सेना के मुखिया प्रमोद मुतालिक का मुंह काला हो गया। ये घटना तब हुई जब श्री मुतालिक वैलेन्ताइन्स डे पर होने वाली एक बहस में हिस्सा लेने वाले थे. इससे पहले कि श्री मुतालिक कुछ कहें, कुछ युवा प्रेमियों ने उन्हें मंच से उतर उनके मुंह पर कालिख पोत दी. बेचारे श्री मुतालिक....अभी पिछले साल ही तो 'प्रेम के दिन' इन्होंने कुछ प्रेमी युगलों की पिटाई कर अपनी विशेष पहचान बनाई थी. प्रेम के दिन के पहले ही इस तरह के हादसों को देखते हुए पूरे देश ख़ास कर महानगरों की पुलिस अभी से ही चौकस हो गयी है.
वर्तमान पत्रकारिता की अमर ज्योति और महान लेखक प्रभास जोशी कहते थे - " वैलेंटाइन डे की जननी बाज़ारवाद है. ये न तो हमारी सभ्यता से जुड़ा है, न ही हमारी संस्कृति से इसका कोई सरोकार है." यह बात सौ फीसदी सही है. कुछ निजी कंपनियों ने अपने फायदे के लिए वैलेंटाइन डे का इतना प्रचार प्रसार किया कि ये हमारी जिंदगी का एक अहम हिस्सा बन गया. जाने-अनजाने में सही लेकिन इस काम में उनका साथ मीडिया ने भी बखूबी निभाया. फिल्मों के माध्यम से प्रेम के इजहार करने का ये विशेष दिन आँखों के रास्ते दिल में उतर गया. अब तो हर आदमी, चाहे वो आम हो या ख़ास, वैलेंटाइन डे के बारे में जानता है.
चिंता या चिंतन
सवाल उठता है कि "क्या वैलेंटाइन डे सचमुच चिंता का विषय है?" क्या ये ख़ुशी का दिन नहीं है! प्रेम तो जीवन के लिए उतना ही ज़रूरी है जैसे खाने के लिए अन्न, साँस लेने के लिए हवा और पीने के लिए पानी. दूसरे शब्दों में कहें तो प्रेम हमारे आत्मस्वरुप की अभिव्यक्ति है. प्रेम से हम हैं और हम से प्रेम.
प्रेम है शाश्वत, लेकिन आज के दौर में इसकी अभिव्यक्ति क्षणिक हो गयी है. ये है तो निर्विकार, लेकिन इसका वर्तमान स्वरूप विकृत हो गया है.
प्रेम का वास्तविक स्वरुप
यदि प्रेम है तो सब से है और सब के लिए है. अगर ऐसा नहीं है तो ये कुछ देर का आकर्षण है. फिर ये प्रेम नहीं है...भावनाओं का आंशिक खिचाव है.
प्रेम और सेक्स में सम्बन्ध
आज के समय में प्रेम और सेक्स एक-दूसरे के पूरक हो गए हैं. इन परिस्थितियों में सेक्स-संबंधों को समझना बहुत ज़रूरी है.
मेरी समझ में सेक्स 'पूर्ण समर्पण' है 'एक प्राणी का दूसरे के लिए'. अगर एक औरत किसी से शारीरिक सम्बन्ध बनाये तो इसके तीन ही वजह हो सकती हैं....पहला ये कि वो उसके प्रति समर्पण के उस स्तर तक पहुँच कि आपस में कोई पर्दा रखने की जरूरत नहीं रही. यानि औरत का उस आदमी के प्रति विश्वास इतना गहरा हो गया कि उसने अपना स्वाभिमान जो किसी भी औरत के लिए सर्वोपरि होता है, आदमी के हवाले कर दिया. दूसरा ये कि वो कामातुर है जिसकी वजह से उसे जिस्मानी-सम्बन्ध बनाने की जरूरत पड़ी. और तीसरा ये कि वो मानसिक रोगी है. ये सारी बातें कुछ हद तक मर्दों के लिए भी लागू होती हैं.
अमर है प्रेम
रूह की तरह प्रेम भी अजर-अमर है. कोई ये कहे कि आज के समय में प्रेम मर चुका है या आज की युवा पीढ़ी को प्रेम समझ में नहीं आता और प्रेम तो हमारे ज़माने में होता था, तो ये सब उसकी निजी ज़िंदगी की निराशा है. या तो उसे अब तक प्रेम करने का मौका नही मिला या मिला भी तो उसने सामाजिक बंधनों को तरजीह दी और खुद को सही और ग़लत की कसौटी पर कसता रहा. अपने आप को समाज में शरीफ दिखाने के चक्कर में खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली और प्रेम से दूर होता चला गया.
भौतिकता से आध्यात्मिकता की ओर
प्रेम का असली स्वरूप तो आध्यात्मिक है. हमें इसकी भौतिकता का अहसास आम-जनजीवन में होता रहता है लेकिन इसके आध्यात्मिक स्वरूप का आभास कभी-कभी ही होता है. हमारे पड़ोसियों का हमसे हाल-चाल पूछना भी आध्यात्मिक प्रेम की भौतिक अभिव्यक्ति है. इसकी आध्यात्मिकता को समझने के लिए ज़माने की वास्तविकता को जानना होगा, उसपर विचार करना होगा. इसी रास्ते हम अपने आनंदमय स्वरूप तक पहुँच सकते हैं और प्रेम की अध्यात्मिकता को आत्मसात कर सकते हैं.
तीनों बुद्धिजीवियों से अनुरोध
अंत में एक बार फिर श्री मुतालिक से जुड़ी घटना को देखते हुए प्रेमियों में बढ़ती हिंसा, असहिष्णुता और ग़ैर-ज़िम्मेदाराना हरकतों के प्रति चिंता व्यक्त करता हूँ. और बाला साहब ठाकरे के साथ-साथ उनके नक्शेकदम पर चल रहे राज ठाकरे से अनुरोध करता हूँ कि कम से कम इस प्रेम दिवस पर अपने मानुसों को उनके अस्तबल से न निकलने दें. अन्यथा किसी भी दुर्घटना की नैतिक ज़िम्मेदारी न तो प्रशासन लेगी और न ही देश के युवा.
चिंता या चिंतन
सवाल उठता है कि "क्या वैलेंटाइन डे सचमुच चिंता का विषय है?" क्या ये ख़ुशी का दिन नहीं है! प्रेम तो जीवन के लिए उतना ही ज़रूरी है जैसे खाने के लिए अन्न, साँस लेने के लिए हवा और पीने के लिए पानी. दूसरे शब्दों में कहें तो प्रेम हमारे आत्मस्वरुप की अभिव्यक्ति है. प्रेम से हम हैं और हम से प्रेम.
प्रेम है शाश्वत, लेकिन आज के दौर में इसकी अभिव्यक्ति क्षणिक हो गयी है. ये है तो निर्विकार, लेकिन इसका वर्तमान स्वरूप विकृत हो गया है.
प्रेम का वास्तविक स्वरुप
यदि प्रेम है तो सब से है और सब के लिए है. अगर ऐसा नहीं है तो ये कुछ देर का आकर्षण है. फिर ये प्रेम नहीं है...भावनाओं का आंशिक खिचाव है.
प्रेम और सेक्स में सम्बन्ध
आज के समय में प्रेम और सेक्स एक-दूसरे के पूरक हो गए हैं. इन परिस्थितियों में सेक्स-संबंधों को समझना बहुत ज़रूरी है.
मेरी समझ में सेक्स 'पूर्ण समर्पण' है 'एक प्राणी का दूसरे के लिए'. अगर एक औरत किसी से शारीरिक सम्बन्ध बनाये तो इसके तीन ही वजह हो सकती हैं....पहला ये कि वो उसके प्रति समर्पण के उस स्तर तक पहुँच कि आपस में कोई पर्दा रखने की जरूरत नहीं रही. यानि औरत का उस आदमी के प्रति विश्वास इतना गहरा हो गया कि उसने अपना स्वाभिमान जो किसी भी औरत के लिए सर्वोपरि होता है, आदमी के हवाले कर दिया. दूसरा ये कि वो कामातुर है जिसकी वजह से उसे जिस्मानी-सम्बन्ध बनाने की जरूरत पड़ी. और तीसरा ये कि वो मानसिक रोगी है. ये सारी बातें कुछ हद तक मर्दों के लिए भी लागू होती हैं.
अमर है प्रेम
रूह की तरह प्रेम भी अजर-अमर है. कोई ये कहे कि आज के समय में प्रेम मर चुका है या आज की युवा पीढ़ी को प्रेम समझ में नहीं आता और प्रेम तो हमारे ज़माने में होता था, तो ये सब उसकी निजी ज़िंदगी की निराशा है. या तो उसे अब तक प्रेम करने का मौका नही मिला या मिला भी तो उसने सामाजिक बंधनों को तरजीह दी और खुद को सही और ग़लत की कसौटी पर कसता रहा. अपने आप को समाज में शरीफ दिखाने के चक्कर में खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली और प्रेम से दूर होता चला गया.
भौतिकता से आध्यात्मिकता की ओर
प्रेम का असली स्वरूप तो आध्यात्मिक है. हमें इसकी भौतिकता का अहसास आम-जनजीवन में होता रहता है लेकिन इसके आध्यात्मिक स्वरूप का आभास कभी-कभी ही होता है. हमारे पड़ोसियों का हमसे हाल-चाल पूछना भी आध्यात्मिक प्रेम की भौतिक अभिव्यक्ति है. इसकी आध्यात्मिकता को समझने के लिए ज़माने की वास्तविकता को जानना होगा, उसपर विचार करना होगा. इसी रास्ते हम अपने आनंदमय स्वरूप तक पहुँच सकते हैं और प्रेम की अध्यात्मिकता को आत्मसात कर सकते हैं.
तीनों बुद्धिजीवियों से अनुरोध
अंत में एक बार फिर श्री मुतालिक से जुड़ी घटना को देखते हुए प्रेमियों में बढ़ती हिंसा, असहिष्णुता और ग़ैर-ज़िम्मेदाराना हरकतों के प्रति चिंता व्यक्त करता हूँ. और बाला साहब ठाकरे के साथ-साथ उनके नक्शेकदम पर चल रहे राज ठाकरे से अनुरोध करता हूँ कि कम से कम इस प्रेम दिवस पर अपने मानुसों को उनके अस्तबल से न निकलने दें. अन्यथा किसी भी दुर्घटना की नैतिक ज़िम्मेदारी न तो प्रशासन लेगी और न ही देश के युवा.