सोमवार, जुलाई 28, 2008

कब जगोगे ?

कई दिनों से चल रही उथल-पुथल और खरीद-फरोख्त की राजनीति के बाद अंततः जब सरकार का वजूद बना रहा तो आतंकियों ने भी इस खुशी में अपनी हाजिरी लगाई और २ घंटों के अन्दर एक के बाद एक, १७ विस्फोटों की सलामी दी। जहाँ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने बुरी तरह घायल लोगों की विडियो क्लिप को अपने ब्रेकिंग न्यूज़ में जगह दी, वहीं उनसे कंधे से कन्धा मिला कर चलने वाली प्रिंट मीडिया ने भी लाशों से लिपटी अहमदाबाद की लाल धरती की तस्वीरों को अपने कवर पेज पर पनाह दी.


आतंकियों द्वारा जारी ई-मेल में इस दुर्घटना को गोधरा कांड का बदला बताया गया और २ बम तो विश्व हिंदू परिषद् के सुप्रसिद्ध नेता प्रवीन तोगडिया की मिलकियत वाले अस्पताल में फोडे गए। पहले की तरह ही राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ने घटना पर गहरा दुःख प्रकट किया. विपक्ष के नेता और स्वनामधन्य हिंदुत्व की बागडोर सम्हालने वाले नेता श्री लालकृष्ण आडवाणी ने एक बार फिर सरकारी तंत्र को नक्कारा घोषित कर के ही दम लिया।



विस्फोट ने गुजरात की धरती को हिला कर रख दिया। लेकिन हमने अपने टीवी चैनल बदल दिए, चैनलों ने खबरें बदल दिए और हम फिर से जीवन के अनजान और कभी न ख़त्म होने वाली दौड़ में अपनी गति से शामिल हो गए।

जिए जा रहे हैं कि मौत आती ही नहीं.......

हमारे जीने और मरने में कोई फर्क ही नहीं रहा. हमारी संवेदनाएं कब हमें छोड़ कर चली गई, हम आदमी से मशीन में कब परिवर्तित हो गए, हमें पता भी नहीं चला. किसी शायर ने खूब कहा है.....


शाम तक सुबह के चेहरे से उतर जाते हैं,

इतने समझौतों पर जीते हैं कि मर जाते हैं।

हम इस कदर पत्थर बन चुके हैं कि १७ विस्फोटों के बावजूद हमारी संवेदनाएं नहीं जागीं. शायद इसलिए कि सड़क पर पडी उन क्षत-विक्षत लाशों में को हमारा परिवार वाला नहीं था. शायद हमें इंतजार है विस्फोटों की अगली फेहरिस्त का जिसमे हम खो दे कुछ अपनों को....कुछ रिश्तों को.....और रह जायें चाँद यादें! आंसू भी जज्ब हो जायें आँखों की कब्र में और बचें खून के वो कतरे जो गिरें उन सैकडों मासूम और बेगुनाह मृतकों के सजदे में।

2 टिप्‍पणियां:

Anil Kumar ने कहा…

बहुत खूब! लिखते रहे, कोई तो कर्मवीर सुनेगा!

Manjit Thakur ने कहा…

१७ विस्फोटों से क्या मतलब है जनाब? विस्फोटो की श्रृंखला यहीं से शुरु क्यों.. विस्फोट उससे पहले भी हुए हैं.. होते रहे हैं। कहां तक गिनेंगे.. अक्षरधाम, पहलगाम, बनारस.. धमाके होते रहे हैं। हीरोशिमा और नागासाकी को भी गिने लें.. लड़ना आदमी की फितरत में है। हम कई तरह से कई तरह की चीज़ों के लिए लड़ते हैं।
बमों से लड़ो, तलवार से दांतों से किटकिटा या नखों से....
झड़ गई पूंछ रोमांत झड़े, पशुता का झड़ना बाकी है,
बाहर-बाहर तन संवर चुका, मन अभी संवरना बाकी है।

मानवता का इतिहास दरअसल लड़ाईयों का इतिहास है, विचारिएगा।
सादर