शनिवार, जून 02, 2007



चलो यहाँ से कहीँ दूर.....


अब तक मैंने गांवों और छोटे शहरों के लोगों को ही करीब से देखा था और उनकी पारिवारिक स्थिति के बारे में जानने का मौक़ा मिला था, पर दिल्ली के सात साल के इस सफ़र में महानगरीय जीवन को नजदीक से समझने का मौक़ा मिला। छोटे शहर के सुस्त और आराम तलब जिन्दगी से निकल कर जब देश कि राजधानी में क़दम रखा तो टेलिविज़न पर दिखने वाली ये रंगीन दुनिया नज़र आयी और यहीं से शुरुआत हुई अजनबी रास्ते पर जिन्दगी के अनजान सफ़र की।
नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से बाहर निकलने पर पहले तो आटो रिक्शा वालों की भीड़ दिखायी दीं लेकिन धीरे-धीरे ये रिक्शों का जत्था लंबी और चमकीली गाड़ियों की भीड़ में तब्दील हो गईं । ये गाडियां और भी आकर्षक तब प्रतीत होने लगी जब इनमें सूट और छोटे कपड़ों में नर-नारियां आपस में उन्मुक्त हो कर बातचीत करते दिखायी दिए। महानगर का यह कार्पोरेट स्टाइल आँखों के रास्ते दिल में उतर गया। यहाँ की बड़ी गाडियां, बडे बंगले और बडे लोग इस महानगर की शान में चार चांद लगाते नज़र आने लगे। यहाँ तो बंगलों और दफ्तरों के बाहर खडे सुरक्षा गार्ड भी वेल ड्रेस में नज़र आ रहे थे और मज़े की बात कि वो वहाँ आने-जाने वालों का स्तर उनके कपड़ों से ही जान लेते थे और ये सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है। बशीर बद्र ने लोगों की इस सोंच को अपने दो मिसरों के आईने में उतारने की बेहतरीन कोशिश की है-

यहाँ लिबास की कीमत है आदमी की नहीं,
मुझे गिलास बडे दे शराब कम कर दे।

मैं भी यहाँ की रवायत को समझने की कोशिश करने लगा। वैसे भी अपमानित होना किसी को पसंद नहीं होता। इसलिये 'जैसा देश वैसा वेश' की तर्ज पर मैंने भी अपने पुराने चोगे उतार नए कपडे पहने और चप्पलों की भीड़ से निकल जूतों की जमात में शामिल हो मैं भी जेंटअल मैंन बनने का ख्वाब देखने लगा। अब तो मेरे जूते भी आईने की तरह चमकने लगे और मैंने भी ये सिद्धान्त आपना लिया कि 'जूते आदमी के व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा और अटूट पहचान हैं '।

खैर, सफ़र जारी रह और ये सोंच भी कुछ समय तक मुझ पर हावी रही। 'वेल्ल ड्रेस' में होने के कारन दफ्तरों से ले कर पंच सितारा होटलों तक कहीँ किसी सुरक्षा कर्मी ने नहीं रोका और वहां के अधिकारियों से भी पर्याप्त इज्जत मिली।

वक़्त ने मुझे न्यूज़ चैनलों की दहलीज पर पहुँचा दिया। यहाँ के अनुभव और भी अनोखे रहे। यहाँ तो अदभुत दृश्य दिखाई दिए जो आमतौर पर अंसल प्लाजा और पीवीआर अनुपम और प्रिया के आसपास भी नहीं दिखती। मज़े की बात तो यह रही कि इसमे भी मुझे खुला आमंत्रण मिला। पर सिद्धांतों और नैतिकता को धारण किये हुए मैं इनसे कन्नी कटता रह जिसकी मुझे पर्याप्त सज़ा मिली। किसी के बढ़े हुए हाँथ को ना थामना भी गुनाह था। और वैसे भी गुनाहों के देवता इस कलयुग में भरे पडे हैं,यह फिर किसी धर्मवीर भारती को बताने की ज़रूरत नहीं पडी।

मैं हमेशा खुद से यह सवाल करता रहा कि बचपन से ही हमें गाँधी जी के तीन बंदरों की कहानियाँ क्यों सुनायी जाती रही, पंचतंत्र की कहानियाँ क्यों सुनायी गयी और नैतिकता का पाठ क्यों पढाया जाता रहा। यदि चरित्रहीनता और अनैतिक करतूतों से ही हम आगे बढ सकते हैं तो हम सभी को बचपन से ही इसमे पारंगत बनाने की कोशिश करनी चाहिऐ थी। और वैसे भी नकारात्मक चीजों को आदमी तुरंत अपना लेता है। बहरहाल, इस सवाल का जवाब ना आजतक मुझे मिला है और ना कोई मुझे बता पाया।
दिल्ली आकर गीता में लिखित द्रष्टा भाव से कर्म करने की बात में सार्थकता नज़र आयी। इसे अपनाने में भी बहुत मज़ा आया। अब तो हर समय और हर जगह 'कैरेक्टर रीडिंग' शुरू हो गयी। मैं जहाँ भी जाता, वहाँ के लोगों के कामकाज को देखता और उसके पीछे जुडे हुए मानवीय सोंच का मुल्यांकन करने की कोशिश करता रहा। अंसल प्लाजा के प्रेमी युगल से लेकर eएस्कौन्मंदिर के झूमते-नाचते भक्तों तक, बच्चों से लेकर उम्रदराज़ लोगों तक, सबको द्रष्टा भाव से देखना शुरू किया। इससे लोगों की सोंच के बारे में एक अवधारणा बनाने में बड़ी मदद मिली।

आम आदमी के मनोभाव समझने की कोशिश ने मन को थादे समय के लिए इसमें उलझाये तो जरूर रखा लेकिन सत्य कि तलाश जारी रही। समाज को समझने की इस प्रक्रिया में जीवन को समझने का प्रयास कम नहीं हुआ। घुटन मेरी जिन्दगी का हिस्सा बन गयी। यदि दिल्ली की सड़कों पर कोई हादसा हो, दफ्तर में किसी के साथ कोई अन्याय हो या कही भी किसी भी स्तर पर आम आदमी का शोषण होने की बात सामने आती, तो इसका दुःख मुझे पहले की तरह ही होता रहा। ये समाज किस दिशा में जा रहा है? व्यक्तिगत स्वार्थ की इस यात्रा में लोग कहॉ तक और चलेंगे? अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए ये विशेष वर्ग आम आदमी का इस्तेमाल काब तक करते रहेंगे और आम आदमी कब तक महज़ दो वक़्त की रोटी के लिए दिन-रात अपना ख़ून जलाता रहेगा? हममें विशेष बनने की ये चाहत कब ख़त्म होगी?.........चिन्तन कभी चिन्ता में बदला और चिन्ता कभी चिन्तन में।
अब तो चिन्तन जिन्दगी का एक अटूट हिस्सा बन गया है। रोटी के इंतजाम के बाद जब कभी इस तरफ सोंचता हूँ तो पीडा बढ जाती है....इस हालत में उंगलियां कम्प्यूटर के की-बोर्ड पर थिरकती हैं...कुछ शब्द स्क्रीन पर उभरते हैं और जीं कुछ हल्का हो जाता है। जब दर्द हद से गुज़रता दिखायी देता है तो दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल के दो मिसरे जेहन में उभरने लगते हैं-

यहाँ दरख्तों के साए में धूप लगती है
चलो यहाँ से कहीँ दूर और उम्र भर के लिए......