बुधवार, जुलाई 07, 2010

देस-दुनिया: भारतीय रेल का विशेष भण्डारण कक्ष अभी तक हमने अपन...

देस-दुनिया: भारतीय रेल का विशेष भण्डारण कक्ष


अभी तक हमने अपन...
: "भारतीय रेल का विशेष भण्डारण कक्ष अभी तक हमने अपनी रेल यात्रा में कभी ऐसी चीज़ देखी नहीं होगी! आज आपको दिखाते हैं भारतीय रेल के पैंटी कार म..."

शनिवार, फ़रवरी 13, 2010


प्यार के वारदात होने दो......

अभी प्रेम दिवस से पहली शाम को बेंगलुरु में एक हादसा हो गया। शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना की तर्ज़ पर बने विवादस्पद संगठन श्रीराम सेना के मुखिया प्रमोद मुतालिक का मुंह काला हो गया। ये घटना तब हुई जब श्री मुतालिक वैलेन्ताइन्स डे पर होने वाली एक बहस में हिस्सा लेने वाले थे. इससे पहले कि श्री मुतालिक कुछ कहें, कुछ युवा प्रेमियों ने उन्हें मंच से उतर उनके मुंह पर कालिख पोत दी. बेचारे श्री मुतालिक....अभी पिछले साल ही तो 'प्रेम के दिन' इन्होंने कुछ प्रेमी युगलों की पिटाई कर अपनी विशेष पहचान बनाई थी. प्रेम के दिन के पहले ही इस तरह के हादसों को देखते हुए पूरे देश ख़ास कर महानगरों की पुलिस अभी से ही चौकस हो गयी है.

बाज़ारवाद : वैलेंटाइन डे की जननी
वर्तमान पत्रकारिता की अमर ज्योति और महान लेखक प्रभास जोशी कहते थे - " वैलेंटाइन डे की जननी बाज़ारवाद है. ये न तो हमारी सभ्यता से जुड़ा है, न ही हमारी संस्कृति से इसका कोई सरोकार है." यह बात सौ फीसदी सही है. कुछ निजी कंपनियों ने अपने फायदे के लिए वैलेंटाइन डे का इतना प्रचार प्रसार किया कि ये हमारी जिंदगी का एक अहम हिस्सा बन गया. जाने-अनजाने में सही लेकिन इस काम में उनका साथ मीडिया ने भी बखूबी निभाया. फिल्मों के माध्यम से प्रेम के इजहार करने का ये विशेष दिन आँखों के रास्ते दिल में उतर गया. अब तो हर आदमी, चाहे वो आम हो या ख़ास, वैलेंटाइन डे के बारे में जानता है.

चिंता या चिंतन
सवाल उठता है कि "क्या वैलेंटाइन डे सचमुच चिंता का विषय है?" क्या ये ख़ुशी का दिन नहीं है! प्रेम तो जीवन के लिए उतना ही ज़रूरी है जैसे खाने के लिए अन्न, साँस लेने के लिए हवा और पीने के लिए पानी. दूसरे शब्दों में कहें तो प्रेम हमारे आत्मस्वरुप की अभिव्यक्ति है. प्रेम से हम हैं और हम से प्रेम.

प्रेम है शाश्वत, लेकिन आज के दौर में इसकी अभिव्यक्ति क्षणिक हो गयी है. ये है तो निर्विकार, लेकिन इसका वर्तमान स्वरूप विकृत हो गया है.

प्रेम का वास्तविक स्वरुप
यदि प्रेम है तो सब से है और सब के लिए है. अगर ऐसा नहीं है तो ये कुछ देर का आकर्षण है. फिर ये प्रेम नहीं है...भावनाओं का आंशिक खिचाव है.

प्रेम और सेक्स में सम्बन्ध
आज के समय में प्रेम और सेक्स एक-दूसरे के पूरक हो गए हैं. इन परिस्थितियों में सेक्स-संबंधों को समझना बहुत ज़रूरी है.

मेरी समझ में सेक्स 'पूर्ण समर्पण' है 'एक प्राणी का दूसरे के लिए'. अगर एक औरत किसी से शारीरिक सम्बन्ध बनाये तो इसके तीन ही वजह हो सकती हैं....पहला ये कि वो उसके प्रति समर्पण के उस स्तर तक पहुँच कि आपस में कोई पर्दा रखने की जरूरत नहीं रही. यानि औरत का उस आदमी के प्रति विश्वास इतना गहरा हो गया कि उसने अपना स्वाभिमान जो किसी भी औरत के लिए सर्वोपरि होता है, आदमी के हवाले कर दिया. दूसरा ये कि वो कामातुर है जिसकी वजह से उसे जिस्मानी-सम्बन्ध बनाने की जरूरत पड़ी. और तीसरा ये कि वो मानसिक रोगी है. ये सारी बातें कुछ हद तक मर्दों के लिए भी लागू होती हैं.

अमर है प्रेम
रूह की तरह प्रेम भी अजर-अमर है. कोई ये कहे कि आज के समय में प्रेम मर चुका है या आज की युवा पीढ़ी को प्रेम समझ में नहीं आता और प्रेम तो हमारे ज़माने में होता था, तो ये सब उसकी निजी ज़िंदगी की निराशा है. या तो उसे अब तक प्रेम करने का मौका नही मिला या मिला भी तो उसने सामाजिक बंधनों को तरजीह दी और खुद को सही और ग़लत की कसौटी पर कसता रहा. अपने आप को समाज में शरीफ दिखाने के चक्कर में खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली और प्रेम से दूर होता चला गया.

भौतिकता से आध्यात्मिकता की ओर
प्रेम का असली स्वरूप तो आध्यात्मिक है. हमें इसकी भौतिकता का अहसास आम-जनजीवन में होता रहता है लेकिन इसके आध्यात्मिक स्वरूप का आभास कभी-कभी ही होता है. हमारे पड़ोसियों का हमसे हाल-चाल पूछना भी आध्यात्मिक प्रेम की भौतिक अभिव्यक्ति है. इसकी आध्यात्मिकता को समझने के लिए ज़माने की वास्तविकता को जानना होगा, उसपर विचार करना होगा. इसी रास्ते हम अपने आनंदमय स्वरूप तक पहुँच सकते हैं और प्रेम की अध्यात्मिकता को आत्मसात कर सकते हैं.

तीनों बुद्धिजीवियों से अनुरोध
अंत में एक बार फिर श्री मुतालिक से जुड़ी घटना को देखते हुए प्रेमियों में बढ़ती हिंसा, असहिष्णुता और ग़ैर-ज़िम्मेदाराना हरकतों के प्रति चिंता व्यक्त करता हूँ. और बाला साहब ठाकरे के साथ-साथ उनके नक्शेकदम पर चल रहे राज ठाकरे से अनुरोध करता हूँ कि कम से कम इस प्रेम दिवस पर अपने मानुसों को उनके अस्तबल से न निकलने दें. अन्यथा किसी भी दुर्घटना की नैतिक ज़िम्मेदारी न तो प्रशासन लेगी और न ही देश के युवा.





रविवार, जनवरी 03, 2010

ये कैसी ब्रॉड थिंकिंग है!
कल के दैनिक भास्कर अखबार का पन्ना पलटते हुए मेरी नज़र एक खबर पर टिक गई। वो था "चीन: इन्टरनेट पोर्नोग्राफी में ५००० गिरफ्तार". इस खबर के अनुसार चीनी सरकार ने ९००० अश्लील वेबसाइटस पर पाबन्दी लगा दी है. इसके इस्तेमाल की जानकारी देने वालों को १५०० डॉलर का ईनाम भी घोषित किया गया है. चीनी सरकार का कहना है कि ऐसा वे सुरक्षा और नैतिक कारणों से कर रहे हैं और वे नहीं चाहते कि इन्टरनेट के बहाने समाज में अश्लीलता फैले.

नैतिकता की बात पढ़ कर मुझे अपने एक नव-परिचित बैंकर मित्र से हाल ही में "वेश्यावृत्ति को कानूनी बनाने" के मसले पर हुई बहस की याद ताज़ा हो गयी। मेरे मित्र इसे कानूनी बनाने के पक्ष में थे. मेरा सवाल था कि भारत जैसे देश में वेश्यावृत्ति क्या इतनी गंभीर समस्या बन गयी है कि इसे कानूनी जामा पहनाने की जरूरत पड़ सकती है? क्या सेक्स आदमी की इतनी बड़ी जरूरत के रूप में उभर कर सामने आया है कि विवाह जैसी सामाजिक व्यवस्था में रहने के बावजूद उसका वेश्यालयों में जाना अनिवार्य हो गया है?
मेरे मित्र इस बात से सहमत नहीं हुए। उनका मानना है था कि नैतिकता से जुडी सामाजिक अवधारणाओं को ध्यान में रखते हुए यदि वेश्यावृत्ति को कानूनी नहीं बनाया जाता तो यह किसी आदमी के साथ भी नाइंसाफी होगी. नैतिकता का रोना रोते हुए हम आम आदमी को यह स्वतंत्रता नहीं देते तो डेमोक्रेसी का कोई मतलब नहीं है और ऐसे विचारों को संकीर्ण मानसिकता वाले लोग ही सपोर्ट करते हैं. उनका कहना था कि भारत में बड़ी संख्या में लोग घूमने-फिरने या काम के बहाने थाईलैंड जाना पसंद करते हैं. ये बात जगजाहिर है कि थाईलैंड वेश्यविरित्ति के मामले में दुनिया भर में अपनी अलग जगह बना चुका है. सबसे मजेदार बात यह है कि वेश्यावृत्ति थाईलैंड की अर्थव्यवस्था की रीढ़ बन गयी है.
मैंने उनसे पूछा कि क्या सेक्स हमारी वैसी ही जरूरत बन चुकी है जैसे हमें २४ घंटे में कम-से-कम दो बार भोजन की जरूरत होती है? मेरा मानना है कि यदि नैतिकता को धारण किये हुए ही सही या असमाजिक या व्यभिचारी कहलाने के डर से ही सही, आदमी इस जरूरत को सीमित रखता है तो सेक्स कभी समस्या बनेगी ही नहीं और वेश्यावृत्ति को कानूनी बनाने का सवाल ही नहीं खड़ा होगा।
उन्होंने मुझे "नैरो माइंडेड" का खिताब दे कर इस बहस से खुद को किनारा कर लिया। मैंने भी इस बहस को यहीं विराम देना उचित समझा लेकिन एक सवाल मेरे जेहन में अभी भी है....वो ये कि "क्या नैतिकता को आज की युवा पीढ़ी किताबी बातें और ढ़कोसला समझती है?" यदि नहीं तो मुझे अपनी मानसिकता को "ब्रॉड" बनाने के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी.

शुक्रवार, जनवरी 01, 2010