गुरुवार, जुलाई 31, 2008



ये आई ऐ ई ऐ क्या है?




बारूद की ढेर पर चलने वाले भारतियों से अभी फूल-झाडियाँ छूटने की बात करना बेमानी मालूम होती है। आज जहाँ हर तरफ़ जीवित बम मिल रहे हैं, आन्तरिक सुरक्षा पर प्रश्न चिन्ह उठ रहा है, वहीँ सरकार को हिला कर रख देने वाली न्यूक्लिअर डील से जुड़े मसाले कौन सुनेगा! लेकिन बात ही कुछ ऐसी है कि हर कोई सुनना चाहेगा।

देश भर में आई ऐ ई ऐ और हाइड एक्ट की चर्चा इतनी बार हो चुकी है कि ये नाम तो बच्चों को भी याद हो गए हैं। लेकिन भारत को विकसित राष्ट्र बनने का सपना देखने वाले, देश के युवाओं को साथ लेकर दुनिया भर में भारत का नाम रौशन करने की सोच रखने वाले, राष्ट्र को ख़ुद और अपने परिवार से ज्यादा महत्त्व देने की बात करने वाले, आगामी चुनावों में देश के विकास के लिए यदि हारना भी पड़ा तो उस हार का हार भी पहनने को तैयार रहने का दावा करने वाले कांग्रेस के युवा महासचिव महामहिम राहुल गाँधी से हाल ही में हुए एक प्रेस कांफ्रेंस में एक पत्रकार द्वारा आई ऐ ई ऐ के बारे में पूछा गया, तो जनाब का जवाब एक सवाल था -

ये आई ऐ ई ऐ क्या है?

अब धमकियों भरे ई-मेल मिलने, १८ जीवित बम को डिफियुस करने की ख़बरों के बीच ये ख़बर तो छोटी पड़ ही जायेगी!

सोमवार, जुलाई 28, 2008

कब जगोगे ?

कई दिनों से चल रही उथल-पुथल और खरीद-फरोख्त की राजनीति के बाद अंततः जब सरकार का वजूद बना रहा तो आतंकियों ने भी इस खुशी में अपनी हाजिरी लगाई और २ घंटों के अन्दर एक के बाद एक, १७ विस्फोटों की सलामी दी। जहाँ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने बुरी तरह घायल लोगों की विडियो क्लिप को अपने ब्रेकिंग न्यूज़ में जगह दी, वहीं उनसे कंधे से कन्धा मिला कर चलने वाली प्रिंट मीडिया ने भी लाशों से लिपटी अहमदाबाद की लाल धरती की तस्वीरों को अपने कवर पेज पर पनाह दी.


आतंकियों द्वारा जारी ई-मेल में इस दुर्घटना को गोधरा कांड का बदला बताया गया और २ बम तो विश्व हिंदू परिषद् के सुप्रसिद्ध नेता प्रवीन तोगडिया की मिलकियत वाले अस्पताल में फोडे गए। पहले की तरह ही राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ने घटना पर गहरा दुःख प्रकट किया. विपक्ष के नेता और स्वनामधन्य हिंदुत्व की बागडोर सम्हालने वाले नेता श्री लालकृष्ण आडवाणी ने एक बार फिर सरकारी तंत्र को नक्कारा घोषित कर के ही दम लिया।



विस्फोट ने गुजरात की धरती को हिला कर रख दिया। लेकिन हमने अपने टीवी चैनल बदल दिए, चैनलों ने खबरें बदल दिए और हम फिर से जीवन के अनजान और कभी न ख़त्म होने वाली दौड़ में अपनी गति से शामिल हो गए।

जिए जा रहे हैं कि मौत आती ही नहीं.......

हमारे जीने और मरने में कोई फर्क ही नहीं रहा. हमारी संवेदनाएं कब हमें छोड़ कर चली गई, हम आदमी से मशीन में कब परिवर्तित हो गए, हमें पता भी नहीं चला. किसी शायर ने खूब कहा है.....


शाम तक सुबह के चेहरे से उतर जाते हैं,

इतने समझौतों पर जीते हैं कि मर जाते हैं।

हम इस कदर पत्थर बन चुके हैं कि १७ विस्फोटों के बावजूद हमारी संवेदनाएं नहीं जागीं. शायद इसलिए कि सड़क पर पडी उन क्षत-विक्षत लाशों में को हमारा परिवार वाला नहीं था. शायद हमें इंतजार है विस्फोटों की अगली फेहरिस्त का जिसमे हम खो दे कुछ अपनों को....कुछ रिश्तों को.....और रह जायें चाँद यादें! आंसू भी जज्ब हो जायें आँखों की कब्र में और बचें खून के वो कतरे जो गिरें उन सैकडों मासूम और बेगुनाह मृतकों के सजदे में।