बुधवार, मई 13, 2009

राम के आडवाणी या आडवाणी के राम!
कुछ समय पहले तक ये बात मेरी समझ में नहीं आ रही थी कि राजनेताओं के कुर्सी प्रेम की इस कहानी की शुरुआत कहाँ से की जाये। पहले भाजपा से शुरू करून जिसका समर्थन करना वर्त्तमान परिस्थितियों को देखते हुए फायदेमंद हो सकता है या अपने गुजरे हुए समय यानि त्रेतायुग से जहाँ पहुंचते ही महर्षि वाल्मीकि और हनुमान जी के दर्शन होते हैं. वैसे इन तीनों में एक समानता है कि राम की बात तीनों ही करते हैं. अब शुरुआत तो कहीं न कहीं से करनी ही है, तो चलिए राम का नाम ले कर शुरू करते हैं राम मंदिर के पुनर्निमाण का बीड़ा उठाने वाले भाजपा के वरिष्ठ नेता और पीऍम इन वेटिंग लालकृष्ण आडवाणी से।

हम सभी इस बात से परिचित हैं कि श्रीराम तो अवध के राजा थे ही और सनातन धर्म के अनुसार उन्हें ईश्वरीय अवतार माना जाता है, तो पूजे जाने के योग्य तो वे हैं हीं। अब आप पूछेंगे कि आडवाणी से राम का क्या मतलब? लेकिन आडवाणी को राम से तो मतलब है ही. आडवाणी जी शुरुआत से ही राम नाम का जप करते रहे हैं. उनके इस नाम जप ने भी अपना असर दिखाया और अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए रथ यात्रा के रूप में आडवाणी का अपना सिक्का जमाने का प्रयास भी सफल रहा. " सौगंध राम की खाते हैं, हम मंदिर यहीं बनायेंगे, हम मंदिर भव्य बनायेंगे" के नारे के साथ कारसेवक बाबरी मस्जिद/मंदिर के विवादित ढांचे पर चढ़ गए. उनमें राम लला के नाम का उन्माद देख कर ऐसा लगता था कि सबके ऊपर साक्षात् काली विराज रही हों, पर बुद्धि तो सबकी कालिदास वाली हो गयी थी. इसका प्रमाण ऐसे मिलता है कि ढांचे के गुम्बद पर चढ़ कर लोगों ने उसे ही तोड़ना शुरू कर दिया. इस क्रम में सैकडों कारसेवक जख्मी हो गए और उनमें से कई इस जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो इस मृत्युलोक से छूट कर सीधे ब्रह्मलोक पहुँच गए.

वैसे राम मंदिर निर्माण और वहां विधिवत पूजा-पाठ का मुद्दा तो कांग्रेस का होना चाहिए था। ऐसा इसलिए क्योंकि इस विवादस्पद मंदिर/मस्जिद का ताला खुलवाने का काम तो तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने किया था और सभी इस बात से भली-भांति परिचित हैं कि राजीव गाँधी का नाता भारतीय जनता पार्टी से न हो कर कांग्रेस से था। लेकिन अफ़सोस, सेक्युलरिज्म को जिन्दा रखने वाली और अल्पसंख्यकों की मसीहा कांग्रेस इस मुद्दे को कैसे अपना सकती थी.

बाबरी मस्जिद तोड़ना आडवाणी के जीवन की सबसे बड़ी दुर्घटना की तरह है। इसका प्रमाण आडवाणी द्वारा लिब्राहन आयोग के सामने दिए गए उत्तर में मिलता है। आयोग के सामने आडवाणी ने इसे एक दुर्घटना माना और इसे अत्यंत दुखद करार दिया. इसमें भी आडवाणी पर राम नाम का प्रभाव साफ देखा जा सकता है. शायद आडवाणी उस समय मानसिक संप्रेषण शक्ति का प्रयोग कर कारसेवकों के मन में एक ही बात डालने की कोशिश कर रहे होंगे कि "(चढ़ जा बेटा सूली पर) भला करेंगे राम".

इस यात्रा के बाद ही भाजपा का "मत से थोड़ा आगे बढ़ कर बहुमत पाने का सपना" साकार होता नज़र आने लगा। भाजपा प्रत्याशी सड़क से संसद तक पहुँच गए। जहाँ अब तक संसद में भाजपा के 2 सदस्य हुआ करते थे, अब उनकी संख्या बढ़ कर ८० से ज्यादा हो गयी.

कहते हैं कि "राम से बड़ा राम का नाम"। और यह बात आडवाणी जी को शायद बहुत पहले समझ में आ गयी थी। लोकसभा चुनावों में सीटों की संख्या में बढोत्तरी होते देख आडवाणी का राम प्रेम तो कम होता दिखा लेकिन नाम प्रेम और बढ़ गया. श्रीराम के आशीर्वाद से २७ दलों के गठबंधन के साथ ही सही लेकिन भाजपा के नेतृत्व में केंद्र में सरकार का गठन तो हो ही गया. फिर क्या बचा था -

अजगर करे ना चाकरी, पंछी करे न काम।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।

खैर, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार ५ सालों तक चलती रही और आडवाणी जी का राम पर विश्वास अडिग हो गया। देश भी राम भरोसे चलता रहा। इसमें भी आडवाणी का राम पर विश्वास दिखाई देता है.

तुलसी भरोसे राम के, निर्भय हो कर सोए।
अनहोनी होनी नहीं, होनी होय सो होए।

लेकिन साल २००४ के लोकसभा चुनावों में सत्ता तो भाजपा के हाथ से निकल ही गयी। अटल जी ने तो संन्यास ले कर अपना दमन बचने की कोशिश की या कुर्सी उन्हें मजबूरी में छोड़नी पड़ी और अपने पुराने जनसंघी साथी और मित्र आडवाणी जी के लिए जगह तो खाली करनी ही थी। खैर, अभी भी सबकुछ राम भरोसे ही है.

२००९ के इन लोकसभा चुनावों में भी आडवाणी ने एक बार फिर राम नाम का अलाप करना शुरू कर दिया और इस बार तो उनका प्रमुख निशाना बनी देश की युवा पीढ़ी। कर्नाटक की भाजपा सरकार ने तो अपने राज्य के महाविद्यालयों में छुट्टी दे दी कॉलेज स्टूडेंट्स को आडवाणी जी के चुनाव सभाओं तक बाइज्जत पहुंचाने की जिम्मेदारी कॉलेज शिक्षकों और प्रिंसिपल को सौंप दिया गया। इस तरह के माहौल में विश्वविद्यालय प्रशासन और छात्र दोनों ही दुविधा में पड़े दिखाई दिए. कॉलेज प्रशासन को राज्य सरकार को जवाव देना था और अपने यहाँ पढ़ने आये छात्रों के प्रति भी उनकी जवावदेही बनती थी.

अब रहीम मुश्किल पड़ी, गाढ़े दोउ काम।
सांचे से तो जग (आडवाणी) नहीं, झूठे मिलै न राम।

इस घटना की स्टूडेंट्स के बीच मिली-जुली प्रतिक्रिया देखने को मिली। अब कॉलेज के विद्यार्थियों का खून तो गर्म होता ही है। उन्होंने खुल कर इस घटना पर अपनी नाराजगी दर्ज की और कई कॉलेज प्राध्यापकों ने भी दबी ज़बान से आडवाणी जी की भर्त्सना की. राम, राम, राम, राम! वैसे कर्नाटक सरकार की इस मुहिम का असर कितना सकारात्मक साबित होता है, अभी तो ये राम ही जाने लेकिन १६ मई को तो जनता जान ही जायेगी!

आज आडवाणी जब फिर से राम नाम का अलाप कर रहे हैं तो हमारे समाज के भिन्न-भिन्न वर्ग के लोग कई तरह के सवाल करते नज़र आ रहे हैं -

क्या कलयुग में श्रीराम सचमुच इतने कमज़ोर हो गए हैं कि उन्हें अपना मंदिर बनवाने के लिए आडवाणी जी पर आश्रित रहना पड़ रहा है?

क्या बहुसंख्यकों को अपने राम का ध्यान नहीं रहा?

क्या कारसेवकों का प्रयास, उनकी कुर्बानियां व्यर्थ हो जायेंगी?

क्या कारसेवकों की लाश पर राजनीति करने वालों को दंड नहीं मिलेगा?

क्या बहुसंख्यकों की धार्मिक भावनाओं से खेलने वाले राजनेताओं ने हमारी सहिष्णुता, हमारी सहनशक्ति को हमारी कमजोरी समझ ली है?

क्या अयोध्या में रामलला का मंदिर बनाने का सपना अधूरा ही रह जायेगा?

वैसे इस बुढ़ापे में बेचारे आडवाणी जी को कम कष्ट नहीं है। एक तो प्रधानमंत्री बनाने का अधूरा ख्वाब उन्हें रह-रह कर सताते रहता है, साथ ही राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा में उभरते हुए नए नाम नरेन्द्र मोदी ने भी उनकी रातों की नींद उड़ा दी है.

अब भाजपा में यह प्रश्न उठने लगा है कि आडवाणी के बाद पीम इन वेटिंग कौन होगा? तो पार्टी में कई नाम शुष्मा स्वराज, राजनाथ सिंह जैसे कई और नाम उभर कर सामने आये। लेकिन गुजरात की जनता की आवाज भी राम तो सुन ही रहे थे, सो वे अरुण शौरी की ज़बान से बोल पड़े और नरेन्द्र मोदी के नाम का भूत फिर से आडवाणी जी के सामने आ कर खड़ा हो गया. वैसे भाजपा में अब ऐसा व्यक्तित्व कहाँ रह गया है जिसे पार्टी का सपोर्ट न मिलने के बावजूद और पार्टी के दिग्गजों द्वारा विरोध किये जाने के बाद भी गुजरात की जनता ने अपना मुख्यमंत्री चुना. अब गुजरात में जौहरियों की क्या कमी और हीरे को तो जौहरी ही परख सकते हैं. भाजपा अकारण ही परेशान हो रही थी।

कस्तूरी कुंडली बसै, मृग ढूंढें बन माहीं।
वैसे घट-घट राम (नरेन्द्र मोदी) हैं, दुनिया देखहिं नाहीं।

अब ८१ वर्ष की उमर वाले आडवाणी जी के दिल पर इतना बोझ डालना भी ठीक नहीं है. राम के नाम से तो कभी डाकू रहे वाल्मीकि का भी उद्धार हो गया. राम के नाम से कबीर हद से अनहद चले गए. महात्मा गाँधी भी राम का नाम लेते हुए मोक्ष पा गए. तो क्या आडवाणी जी को राम नाम लेने से देव स्थान भारतवर्ष के प्रधान मंत्री की तुच्छ कुर्सी भी नहीं मिल सकती!

बुधवार, मार्च 25, 2009

ये कौन सा दयार है?

भारत में आजकल चुनाव का मौसम है। १५वीं लोकसभा के गठन के लिए होने वाले इन चुनावों में बनते-बिगड़ते राजनीतिक समीकरणों को साफ़ देखा जा सकता है. हाल ही में एक चुनावी सभा में वरुण गाँधी का सांप्रदायिक बयान जहाँ फिर से भाजपा की पुरानी सांप्रदायिक नीतियों की तरफ संकेत देता है, वहीँ कांग्रेस का (कटा) हाथ आम आदमी के साथ रखने का दावा बरकरार है. वामपंथी पार्टियाँ तीसरे मोर्चे के गठन के बाद खुशियाँ मना रही हैं, लेकिन चुनाव के परिणामों को लेकर चिंता की लकीरें कामरेड्स के माथे पर साफ़ दिखाई दे जाती हैं. सबको बस यही चिंता सता रही है कि कुर्सी कैसे मिले?

वैसे आज़ादी के पहले राजनीतिक पार्टियों का स्वरूप कुछ और ही था. सभी पार्टियों का एक ही मकसद था "भारत की आज़ादी". इंडियन नेशनल कांग्रेस के अंतर्गत ही सोसलिस्ट पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी हुआ करती थी. यदि कोई सोसलिस्ट पार्टी का सदस्य बनना चाहता था तो कांग्रेस पार्टी की सदस्यता उसके लिए अनिवार्य थी. कम्युनिस्ट पार्टी के साथ भी कुछ ऐसा ही था। लोगों को जो विचारधारा पसंद आती, वे पार्टी के उसी धडे से जुड़ जाते थे.

जैसे-जैसे आज़ादी का वक़्त करीब आता गया, इंडियन नेशनल कांग्रेस में विचारधारा का अंतर मुखर होता गया और आपसी मतभेद उभर कर लोगों के सामने आने लगे. देश के स्वतन्त्रता अन्दोलानों में अग्रणी भूमिका निभाने वाले राष्ट्रपिता महत्मा गाँधी का कद भी आज़ादी मिलते ही बौना नज़र आने लगा. आज़ादी के बाद गाँधी जी इंडियन नेशनल कांग्रेस को भंग करना चाहते थे. उनका मानना था कि जब इंडियन नेशनल कांग्रेस ने अपना ध्येय प्राप्त कर लिया है तो अब उसे भंग कर किसी और नाम से एक राजनैतिक पार्टी बनाई जानी चाहिए जो देश में आर्थिक विषमताओं को दूर कर एक स्वच्छ और उन्नत समाज के निर्माण में सहायक हो. लेकिन पंडित जवाहरलाल नेहरु और सरदार वल्लभभाई पटेल सरीखे कद्दावर नेताओं नें निजी स्वार्थ के लिए इंडियन नेशनल कांग्रेस का नाम बदल उसे 'कांग्रेस' के नाम से आजाद राजनैतिक दल बनाये रखना उचित समझा. सोने की चिडिया कहलाने वाले इस देश को साम्प्रदायिकता की आग में झोंक दिया गया और निजी राजनैतिक स्वार्थ के लिए देश के दो टुकड़े कर दिए गए. अपने अबतक के जीवन काल में, शायद पहली बार, महात्मा गाँधी अपने आपको निरीह महसूस कर रहे होंगे।

गाँधी के इस कमज़ोर स्वरूप को 'समय' भी नहीं देखना चाहता था. ३१ जनवरी १९४८ के दिन यमराज भी आये तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक नाथूराम गौडसे के रूप में जिसने अपने खोखले आदर्शों और संकीर्ण विचारधारा के कारण गरीबों और दलितों के मसीहा गाँधी की हत्या कर दी।

भारत के स्वतंत्रता आंदोलनों में हिस्सा लेने और उनके त्याग के लिए देश जहाँ नेहरु परिवार का ऋणी था, वहीँ आज़ादी के बाद जवाहरलाल नेहरु की वजह से हमारे देश को भरी कीमत चुकानी पड़ी. शांति के कपोत(कबूतर) उडाने वाले नेहरु के कारन भारत को चीन के सामने घुटने टेकने पड़े और देश ने लालबहादुर शास्त्री जैसा एक दूरदर्शी और कुशल प्रधानमंत्री खो दिया. नेहरु जी ने देश के विकास के लिए रूस को अपना मॉडल बनाया जबकि विशेषज्ञों के अनुसार भारत की आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियां रूस से तनिक भी मिलती-जुलती नहीं थी जिसकी वजह से विकास के इस रूसी मॉडल को अपनाना भारत के हित में नहीं था।

कश्मीर मामला भी इन्हीं महान स्वतंत्रता सेनानियों की देन है. जब १९४७ में अंग्रेजों ने भारत के सभी रियासतों(जिनकी संक्या ५०० से भी ज्यादा थी) को आजाद घोषित कर दिया, तब तत्कालीन गृहमंत्री वल्लभभाई पटेल ने इन सबको एक साथ मिला कर फिर से एक राष्ट्र का स्वरूप देने का बीड़ा उठाया। सरदार पटेल का यह प्रयास एतिहासिक था और पूरा देश आज भी उन्हें लौहपुरुष के रूप में अपने दिलों में जिंदा रखता है. लेकिन जब पटेल ने अपनी कूटनीति के तहत कश्मीर के राजा हरी सिंह को अपने साथ मिला कर कश्मीर को कबाइलियों से मुक्त करने के लिए कश्मीर में जब सेना भेजी तो आपसी मतभेद के कारण नेहरु ने उनकी सैन्य कार्रवाई को बीच में ही रोक दिया. इसका खामियाजा भारत आज भी पाकिस्तान शासित कश्मीर के रूप में भुगत रहा है.

स्वतंत्रता मिलने के बाद सोसलिस्ट पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी के लोग कांग्रेस से अलग कर दिए गए। देश की बिगड़ती स्थिति और सरकार पर पूंजीवादियों के बढ़ते प्रभाव के बावजूद जब १९५२, ५७ और ६२ के आम चुनावों में कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत मिला, तब डॉक्टर राममनोहर लोहिया ने गैर-कांग्रेसवाद की रणनीति बनाई. उनकी एस विचारधारा से उनके दो करीबी सहयोगी मधुलिमाया और जौर्ज फर्नांडीज खुश नहीं थे. १९६३ में कलकत्ता के एक सम्मेलन में तो फर्नांडीज ने डॉक्टर लोहिया के खिलाफ जमकर आज उगला कि वो तत्कालीन जनसंघ और शिवसेना जैसे सांप्रदायिक संगठनों से हाथ कैसे मिला सकते हैं? बाद में इन्हीं जौर्ज फर्नांडीज ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार की कैबिनेट में रक्षा मंत्री जैसा अहम् पद संभाला जिसमें भारतीय जनता पार्टी, शिवसेना, बजरंग दल जैसे सांप्रदायिक संगठन शामिल थे.

अपने निधन के कुछ दिनों पहले दोकोटर लोहिया ने अपनी पत्रिका 'जन' के संपादकीय में समाजवादियों को सचेत करते हुए लिखा कि "राजनीति का साधारण कार्यकर्ता दर्शक हो गया है। वह चिपकू हो गया है और किसी न किसी बड़े नेता या मंत्री के साथ चिपके रहने में अपना कल्याण समझता है. वह अपने आपको किसी लायक नहीं बनता जबकि देश-विदेश की जानकारी और छोटी-बड़ी इत्तालायें और उनके विश्लेषण तथा सिद्धांतों के बारे में साधारण कार्यकर्ता को जानकारी होनी चाहिए, साथ ही उसे अपने कर्मक्षेत्र में भी कुछ करके दिखाना चाहिए. दरबारगिरी, चापलूसी और चुगलखोरी साधारण कार्यकर्ता के दुश्मन हैं, इसी के सहारे वह उठाना चाहता है और दूसरे उसकी नक़ल करने लगते हैं जिनके नतीजे बड़े कठिन होते हैं. यथास्थितिवाद का कफ़न भारत की राजनीति पर चढ़ गया है। सबलोग कुछ होना चाहते हैं, बन जाना चाहते हैं। कुछ करने की इच्छा प्रायः सबकी मर चुकी है और जिनमें है भी वह भी बहुत कमजोर हो चुकी है."

गरीबों, दलितों, पिछडे और अल्पसंख्यकों के मसीहा डॉक्टर लोहिया का ये बेबाकपन, एक महान सोच और अद्भुत कार्यशैली उनके मरने के साथ ही दफन हो गए।

इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में एक बड़ा सकारात्मक काम पंजाब से आतंकवाद का खत्म था लेकिन यही मामला उनकी मौत का बहाना बन गया. अपनी कैबिनेट के मंत्रियों के प्रति उनका रुख भी कुछ ज्यादा सख्त था. सूत्रों के अनुसार एक बार इंदिराजी के सचिव धवनजी ने किसी मंत्री को फ़ोन कर सूचित किया कि "हर हईनेस डिसायार्स, यू रिजाइन", तो दर के मारे मंत्री जी की धोती गीली हो गयी. इससे इंदिरा गाँधी के व्यक्तिव में तानाशाही की झलक भी मिलती है.


२५ जून १९७५ को उनके तानाशाही व्यक्तित्व को समूचे देश ने महसूस किया जब इंदिरा गाँधी ने अपने खिलाफ चल रहे इलेक्शन पेटिशन मामले में(सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग करने के मसले पर) इलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा अयोग्य करार दिए जाने के बावजूद प्रधानमंत्री की कुर्सी नहीं छोड़ी और पुरे देश में इमर्जेंसी लागू कर दिया.
इंदिरा गाँधी के इस पदलोलुपता को देखते हुए लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने देशव्यापी आन्दोलन छेड़ दिया। इस आन्दोलन को दबाने के लिए ही इंदिरा गाँधी ने देश में आपातकाल घोषित कर अपने विरोधियों को किसी-न-किसी बहाने जेल में डाल दिया.

१९९२ में बाबरी मस्जिद को गिरा कर साम्प्रदायिकता फैलाने और रामनाम को लोगों में बेंच कर सत्ता पाने वाली भारतीय जनता पार्टी की २७ दलों वाली गठबंधन सरकार ने विमान अपहरण मामले में कंधार जाकर आतंकवादियों को रिहा कर आतंकियों का मनोबल बढ़ा दिया। इन्ही के शासनकाल में देश की नाक "संसद" पर हमला हुआ। सियाचिन से भारतीय सेना को हटाकर शान्तिपाठ करने वाले कवि और तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने देश के सबसे बड़े पड़ोसी दुश्मन पकिस्तान से हाथ मिलाकर अंतर्राष्ट्रीय नोबल शांति पुरस्कार पाने का असफल प्रयास किया जिसके फलस्वरूप कारगिल में न जाने कितनी माँओं नें अपने बच्चे खो दिए और कितनी मांगें उजड़ गयीं। देश में आतंकी हमलों का जो सिलसिला १९९३ में बम्बई से शुरू हुआ, अटलजी के कार्यकाल में पला-बाधा और मनमोहन सिंह की सरकार में जवान हुआ, वो आज भी रुकता दिखाई नहीं दे रहा है. २००४ के लोकसभा चुनावों के बाद भी सुश्री जयललिता (जो दक्षिण भारत के फिल्मों की मशहूर अभिनेत्री रह चुकी हैं) जैसी महिलाओं के नेतृत्व वाली पार्टी के साथ गठबंधन करने वाले अटलबिहारी वाजपेयी(जिनका एक कथन बहुत मशहूर हुआ - "मैं अविवाहित हूँ, ब्रह्मचारी नहीं") ने बहुत निराश होकर कुर्सी छोड़ी.

इसके बाद सत्ता की बागडोर कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गाँधी के हाथों में आ गयी। प्रधानमंत्री का पद ठुकरा कर सोनिया त्याग की प्रतिमूर्ति बन गयीं और उनके पार्टी कार्यकर्ताओं द्वारा उन्हें भारतमाता के रूप में भी देखा जाने लगा। यह बात किसी से छुपी नहीं है कि कांग्रेस के पुराने खादिम डॉक्टर मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री तो बने लेकिन सत्ता की बागडोर सोनिया जी के हाथों में ही रही. वैसे, ये महज़ एक इत्तेफाक ही है कि सोनिया जी की तरह मनमोहन सिंह की भी भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी पर पकड़ थोडी कमजोर है, लेकिन मज़े की बात यह है कि हिन्दी का उच्चारण सोनियाजी और सिंह साहब एक जैसा ही करते हैं।

आज़ादी के स्वर्ण जयंती को मनाये हुए एक दशक बीत गया. बदलते समय के साथ बहुत कुछ बदला. नहीं बदले तो सिर्फ 'हम'. वही पुरानी सोच पीढ़ी दर पीढ़ी चली आई और हम भी उसी मानसिकता के साथ जी रहे हैं. हम में से हर एक अपने और अपने परिवार के भविष्य के लिए चिंतित दिखाई देता है. लेकिन उसका निर्धारण जहाँ होना है, उस स्वदेश के भविष्य की किसी को चिंता नहीं है. हमारे सामने "सत्ता की बागडोर किसे दें" प्रश्न उठता है तो उत्तर में उपलब्ध नेताओं में से किसी एक के नाम पर हम आंख बंद कर अपनी सहमति जता देते हैं, लेकिन हम भूल जाते हैं "इनमें से कोई नहीं" विकल्प को जो हमारे देश को एक अच्छी दशा और भारतीय राजनीति को एक नयी दिशा दे सकता है. जब कभी देश की वर्त्तमान स्थिति पर चर्चा होती है तो आजाद हिंद फौज के अधिकारी रहे और डॉक्टर राममनोहर लोहिया के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने वाले कैप्टन अब्बास अली की ऑंखें नम हो जाती हैं और वे कहते भरी मन से कहते हैं-

समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिन्दोस्तान वालों,
तुम्हारी दास्ताँ तक भी न होगी दास्तानों में।

मंगलवार, मार्च 10, 2009

होली की हार्दिक शुभकामनायें