बुधवार, मार्च 25, 2009

ये कौन सा दयार है?

भारत में आजकल चुनाव का मौसम है। १५वीं लोकसभा के गठन के लिए होने वाले इन चुनावों में बनते-बिगड़ते राजनीतिक समीकरणों को साफ़ देखा जा सकता है. हाल ही में एक चुनावी सभा में वरुण गाँधी का सांप्रदायिक बयान जहाँ फिर से भाजपा की पुरानी सांप्रदायिक नीतियों की तरफ संकेत देता है, वहीँ कांग्रेस का (कटा) हाथ आम आदमी के साथ रखने का दावा बरकरार है. वामपंथी पार्टियाँ तीसरे मोर्चे के गठन के बाद खुशियाँ मना रही हैं, लेकिन चुनाव के परिणामों को लेकर चिंता की लकीरें कामरेड्स के माथे पर साफ़ दिखाई दे जाती हैं. सबको बस यही चिंता सता रही है कि कुर्सी कैसे मिले?

वैसे आज़ादी के पहले राजनीतिक पार्टियों का स्वरूप कुछ और ही था. सभी पार्टियों का एक ही मकसद था "भारत की आज़ादी". इंडियन नेशनल कांग्रेस के अंतर्गत ही सोसलिस्ट पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी हुआ करती थी. यदि कोई सोसलिस्ट पार्टी का सदस्य बनना चाहता था तो कांग्रेस पार्टी की सदस्यता उसके लिए अनिवार्य थी. कम्युनिस्ट पार्टी के साथ भी कुछ ऐसा ही था। लोगों को जो विचारधारा पसंद आती, वे पार्टी के उसी धडे से जुड़ जाते थे.

जैसे-जैसे आज़ादी का वक़्त करीब आता गया, इंडियन नेशनल कांग्रेस में विचारधारा का अंतर मुखर होता गया और आपसी मतभेद उभर कर लोगों के सामने आने लगे. देश के स्वतन्त्रता अन्दोलानों में अग्रणी भूमिका निभाने वाले राष्ट्रपिता महत्मा गाँधी का कद भी आज़ादी मिलते ही बौना नज़र आने लगा. आज़ादी के बाद गाँधी जी इंडियन नेशनल कांग्रेस को भंग करना चाहते थे. उनका मानना था कि जब इंडियन नेशनल कांग्रेस ने अपना ध्येय प्राप्त कर लिया है तो अब उसे भंग कर किसी और नाम से एक राजनैतिक पार्टी बनाई जानी चाहिए जो देश में आर्थिक विषमताओं को दूर कर एक स्वच्छ और उन्नत समाज के निर्माण में सहायक हो. लेकिन पंडित जवाहरलाल नेहरु और सरदार वल्लभभाई पटेल सरीखे कद्दावर नेताओं नें निजी स्वार्थ के लिए इंडियन नेशनल कांग्रेस का नाम बदल उसे 'कांग्रेस' के नाम से आजाद राजनैतिक दल बनाये रखना उचित समझा. सोने की चिडिया कहलाने वाले इस देश को साम्प्रदायिकता की आग में झोंक दिया गया और निजी राजनैतिक स्वार्थ के लिए देश के दो टुकड़े कर दिए गए. अपने अबतक के जीवन काल में, शायद पहली बार, महात्मा गाँधी अपने आपको निरीह महसूस कर रहे होंगे।

गाँधी के इस कमज़ोर स्वरूप को 'समय' भी नहीं देखना चाहता था. ३१ जनवरी १९४८ के दिन यमराज भी आये तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक नाथूराम गौडसे के रूप में जिसने अपने खोखले आदर्शों और संकीर्ण विचारधारा के कारण गरीबों और दलितों के मसीहा गाँधी की हत्या कर दी।

भारत के स्वतंत्रता आंदोलनों में हिस्सा लेने और उनके त्याग के लिए देश जहाँ नेहरु परिवार का ऋणी था, वहीँ आज़ादी के बाद जवाहरलाल नेहरु की वजह से हमारे देश को भरी कीमत चुकानी पड़ी. शांति के कपोत(कबूतर) उडाने वाले नेहरु के कारन भारत को चीन के सामने घुटने टेकने पड़े और देश ने लालबहादुर शास्त्री जैसा एक दूरदर्शी और कुशल प्रधानमंत्री खो दिया. नेहरु जी ने देश के विकास के लिए रूस को अपना मॉडल बनाया जबकि विशेषज्ञों के अनुसार भारत की आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियां रूस से तनिक भी मिलती-जुलती नहीं थी जिसकी वजह से विकास के इस रूसी मॉडल को अपनाना भारत के हित में नहीं था।

कश्मीर मामला भी इन्हीं महान स्वतंत्रता सेनानियों की देन है. जब १९४७ में अंग्रेजों ने भारत के सभी रियासतों(जिनकी संक्या ५०० से भी ज्यादा थी) को आजाद घोषित कर दिया, तब तत्कालीन गृहमंत्री वल्लभभाई पटेल ने इन सबको एक साथ मिला कर फिर से एक राष्ट्र का स्वरूप देने का बीड़ा उठाया। सरदार पटेल का यह प्रयास एतिहासिक था और पूरा देश आज भी उन्हें लौहपुरुष के रूप में अपने दिलों में जिंदा रखता है. लेकिन जब पटेल ने अपनी कूटनीति के तहत कश्मीर के राजा हरी सिंह को अपने साथ मिला कर कश्मीर को कबाइलियों से मुक्त करने के लिए कश्मीर में जब सेना भेजी तो आपसी मतभेद के कारण नेहरु ने उनकी सैन्य कार्रवाई को बीच में ही रोक दिया. इसका खामियाजा भारत आज भी पाकिस्तान शासित कश्मीर के रूप में भुगत रहा है.

स्वतंत्रता मिलने के बाद सोसलिस्ट पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी के लोग कांग्रेस से अलग कर दिए गए। देश की बिगड़ती स्थिति और सरकार पर पूंजीवादियों के बढ़ते प्रभाव के बावजूद जब १९५२, ५७ और ६२ के आम चुनावों में कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत मिला, तब डॉक्टर राममनोहर लोहिया ने गैर-कांग्रेसवाद की रणनीति बनाई. उनकी एस विचारधारा से उनके दो करीबी सहयोगी मधुलिमाया और जौर्ज फर्नांडीज खुश नहीं थे. १९६३ में कलकत्ता के एक सम्मेलन में तो फर्नांडीज ने डॉक्टर लोहिया के खिलाफ जमकर आज उगला कि वो तत्कालीन जनसंघ और शिवसेना जैसे सांप्रदायिक संगठनों से हाथ कैसे मिला सकते हैं? बाद में इन्हीं जौर्ज फर्नांडीज ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार की कैबिनेट में रक्षा मंत्री जैसा अहम् पद संभाला जिसमें भारतीय जनता पार्टी, शिवसेना, बजरंग दल जैसे सांप्रदायिक संगठन शामिल थे.

अपने निधन के कुछ दिनों पहले दोकोटर लोहिया ने अपनी पत्रिका 'जन' के संपादकीय में समाजवादियों को सचेत करते हुए लिखा कि "राजनीति का साधारण कार्यकर्ता दर्शक हो गया है। वह चिपकू हो गया है और किसी न किसी बड़े नेता या मंत्री के साथ चिपके रहने में अपना कल्याण समझता है. वह अपने आपको किसी लायक नहीं बनता जबकि देश-विदेश की जानकारी और छोटी-बड़ी इत्तालायें और उनके विश्लेषण तथा सिद्धांतों के बारे में साधारण कार्यकर्ता को जानकारी होनी चाहिए, साथ ही उसे अपने कर्मक्षेत्र में भी कुछ करके दिखाना चाहिए. दरबारगिरी, चापलूसी और चुगलखोरी साधारण कार्यकर्ता के दुश्मन हैं, इसी के सहारे वह उठाना चाहता है और दूसरे उसकी नक़ल करने लगते हैं जिनके नतीजे बड़े कठिन होते हैं. यथास्थितिवाद का कफ़न भारत की राजनीति पर चढ़ गया है। सबलोग कुछ होना चाहते हैं, बन जाना चाहते हैं। कुछ करने की इच्छा प्रायः सबकी मर चुकी है और जिनमें है भी वह भी बहुत कमजोर हो चुकी है."

गरीबों, दलितों, पिछडे और अल्पसंख्यकों के मसीहा डॉक्टर लोहिया का ये बेबाकपन, एक महान सोच और अद्भुत कार्यशैली उनके मरने के साथ ही दफन हो गए।

इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में एक बड़ा सकारात्मक काम पंजाब से आतंकवाद का खत्म था लेकिन यही मामला उनकी मौत का बहाना बन गया. अपनी कैबिनेट के मंत्रियों के प्रति उनका रुख भी कुछ ज्यादा सख्त था. सूत्रों के अनुसार एक बार इंदिराजी के सचिव धवनजी ने किसी मंत्री को फ़ोन कर सूचित किया कि "हर हईनेस डिसायार्स, यू रिजाइन", तो दर के मारे मंत्री जी की धोती गीली हो गयी. इससे इंदिरा गाँधी के व्यक्तिव में तानाशाही की झलक भी मिलती है.


२५ जून १९७५ को उनके तानाशाही व्यक्तित्व को समूचे देश ने महसूस किया जब इंदिरा गाँधी ने अपने खिलाफ चल रहे इलेक्शन पेटिशन मामले में(सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग करने के मसले पर) इलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा अयोग्य करार दिए जाने के बावजूद प्रधानमंत्री की कुर्सी नहीं छोड़ी और पुरे देश में इमर्जेंसी लागू कर दिया.
इंदिरा गाँधी के इस पदलोलुपता को देखते हुए लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने देशव्यापी आन्दोलन छेड़ दिया। इस आन्दोलन को दबाने के लिए ही इंदिरा गाँधी ने देश में आपातकाल घोषित कर अपने विरोधियों को किसी-न-किसी बहाने जेल में डाल दिया.

१९९२ में बाबरी मस्जिद को गिरा कर साम्प्रदायिकता फैलाने और रामनाम को लोगों में बेंच कर सत्ता पाने वाली भारतीय जनता पार्टी की २७ दलों वाली गठबंधन सरकार ने विमान अपहरण मामले में कंधार जाकर आतंकवादियों को रिहा कर आतंकियों का मनोबल बढ़ा दिया। इन्ही के शासनकाल में देश की नाक "संसद" पर हमला हुआ। सियाचिन से भारतीय सेना को हटाकर शान्तिपाठ करने वाले कवि और तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने देश के सबसे बड़े पड़ोसी दुश्मन पकिस्तान से हाथ मिलाकर अंतर्राष्ट्रीय नोबल शांति पुरस्कार पाने का असफल प्रयास किया जिसके फलस्वरूप कारगिल में न जाने कितनी माँओं नें अपने बच्चे खो दिए और कितनी मांगें उजड़ गयीं। देश में आतंकी हमलों का जो सिलसिला १९९३ में बम्बई से शुरू हुआ, अटलजी के कार्यकाल में पला-बाधा और मनमोहन सिंह की सरकार में जवान हुआ, वो आज भी रुकता दिखाई नहीं दे रहा है. २००४ के लोकसभा चुनावों के बाद भी सुश्री जयललिता (जो दक्षिण भारत के फिल्मों की मशहूर अभिनेत्री रह चुकी हैं) जैसी महिलाओं के नेतृत्व वाली पार्टी के साथ गठबंधन करने वाले अटलबिहारी वाजपेयी(जिनका एक कथन बहुत मशहूर हुआ - "मैं अविवाहित हूँ, ब्रह्मचारी नहीं") ने बहुत निराश होकर कुर्सी छोड़ी.

इसके बाद सत्ता की बागडोर कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गाँधी के हाथों में आ गयी। प्रधानमंत्री का पद ठुकरा कर सोनिया त्याग की प्रतिमूर्ति बन गयीं और उनके पार्टी कार्यकर्ताओं द्वारा उन्हें भारतमाता के रूप में भी देखा जाने लगा। यह बात किसी से छुपी नहीं है कि कांग्रेस के पुराने खादिम डॉक्टर मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री तो बने लेकिन सत्ता की बागडोर सोनिया जी के हाथों में ही रही. वैसे, ये महज़ एक इत्तेफाक ही है कि सोनिया जी की तरह मनमोहन सिंह की भी भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी पर पकड़ थोडी कमजोर है, लेकिन मज़े की बात यह है कि हिन्दी का उच्चारण सोनियाजी और सिंह साहब एक जैसा ही करते हैं।

आज़ादी के स्वर्ण जयंती को मनाये हुए एक दशक बीत गया. बदलते समय के साथ बहुत कुछ बदला. नहीं बदले तो सिर्फ 'हम'. वही पुरानी सोच पीढ़ी दर पीढ़ी चली आई और हम भी उसी मानसिकता के साथ जी रहे हैं. हम में से हर एक अपने और अपने परिवार के भविष्य के लिए चिंतित दिखाई देता है. लेकिन उसका निर्धारण जहाँ होना है, उस स्वदेश के भविष्य की किसी को चिंता नहीं है. हमारे सामने "सत्ता की बागडोर किसे दें" प्रश्न उठता है तो उत्तर में उपलब्ध नेताओं में से किसी एक के नाम पर हम आंख बंद कर अपनी सहमति जता देते हैं, लेकिन हम भूल जाते हैं "इनमें से कोई नहीं" विकल्प को जो हमारे देश को एक अच्छी दशा और भारतीय राजनीति को एक नयी दिशा दे सकता है. जब कभी देश की वर्त्तमान स्थिति पर चर्चा होती है तो आजाद हिंद फौज के अधिकारी रहे और डॉक्टर राममनोहर लोहिया के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने वाले कैप्टन अब्बास अली की ऑंखें नम हो जाती हैं और वे कहते भरी मन से कहते हैं-

समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिन्दोस्तान वालों,
तुम्हारी दास्ताँ तक भी न होगी दास्तानों में।

मंगलवार, मार्च 10, 2009

होली की हार्दिक शुभकामनायें

गुरुवार, जुलाई 31, 2008



ये आई ऐ ई ऐ क्या है?




बारूद की ढेर पर चलने वाले भारतियों से अभी फूल-झाडियाँ छूटने की बात करना बेमानी मालूम होती है। आज जहाँ हर तरफ़ जीवित बम मिल रहे हैं, आन्तरिक सुरक्षा पर प्रश्न चिन्ह उठ रहा है, वहीँ सरकार को हिला कर रख देने वाली न्यूक्लिअर डील से जुड़े मसाले कौन सुनेगा! लेकिन बात ही कुछ ऐसी है कि हर कोई सुनना चाहेगा।

देश भर में आई ऐ ई ऐ और हाइड एक्ट की चर्चा इतनी बार हो चुकी है कि ये नाम तो बच्चों को भी याद हो गए हैं। लेकिन भारत को विकसित राष्ट्र बनने का सपना देखने वाले, देश के युवाओं को साथ लेकर दुनिया भर में भारत का नाम रौशन करने की सोच रखने वाले, राष्ट्र को ख़ुद और अपने परिवार से ज्यादा महत्त्व देने की बात करने वाले, आगामी चुनावों में देश के विकास के लिए यदि हारना भी पड़ा तो उस हार का हार भी पहनने को तैयार रहने का दावा करने वाले कांग्रेस के युवा महासचिव महामहिम राहुल गाँधी से हाल ही में हुए एक प्रेस कांफ्रेंस में एक पत्रकार द्वारा आई ऐ ई ऐ के बारे में पूछा गया, तो जनाब का जवाब एक सवाल था -

ये आई ऐ ई ऐ क्या है?

अब धमकियों भरे ई-मेल मिलने, १८ जीवित बम को डिफियुस करने की ख़बरों के बीच ये ख़बर तो छोटी पड़ ही जायेगी!

सोमवार, जुलाई 28, 2008

कब जगोगे ?

कई दिनों से चल रही उथल-पुथल और खरीद-फरोख्त की राजनीति के बाद अंततः जब सरकार का वजूद बना रहा तो आतंकियों ने भी इस खुशी में अपनी हाजिरी लगाई और २ घंटों के अन्दर एक के बाद एक, १७ विस्फोटों की सलामी दी। जहाँ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने बुरी तरह घायल लोगों की विडियो क्लिप को अपने ब्रेकिंग न्यूज़ में जगह दी, वहीं उनसे कंधे से कन्धा मिला कर चलने वाली प्रिंट मीडिया ने भी लाशों से लिपटी अहमदाबाद की लाल धरती की तस्वीरों को अपने कवर पेज पर पनाह दी.


आतंकियों द्वारा जारी ई-मेल में इस दुर्घटना को गोधरा कांड का बदला बताया गया और २ बम तो विश्व हिंदू परिषद् के सुप्रसिद्ध नेता प्रवीन तोगडिया की मिलकियत वाले अस्पताल में फोडे गए। पहले की तरह ही राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ने घटना पर गहरा दुःख प्रकट किया. विपक्ष के नेता और स्वनामधन्य हिंदुत्व की बागडोर सम्हालने वाले नेता श्री लालकृष्ण आडवाणी ने एक बार फिर सरकारी तंत्र को नक्कारा घोषित कर के ही दम लिया।



विस्फोट ने गुजरात की धरती को हिला कर रख दिया। लेकिन हमने अपने टीवी चैनल बदल दिए, चैनलों ने खबरें बदल दिए और हम फिर से जीवन के अनजान और कभी न ख़त्म होने वाली दौड़ में अपनी गति से शामिल हो गए।

जिए जा रहे हैं कि मौत आती ही नहीं.......

हमारे जीने और मरने में कोई फर्क ही नहीं रहा. हमारी संवेदनाएं कब हमें छोड़ कर चली गई, हम आदमी से मशीन में कब परिवर्तित हो गए, हमें पता भी नहीं चला. किसी शायर ने खूब कहा है.....


शाम तक सुबह के चेहरे से उतर जाते हैं,

इतने समझौतों पर जीते हैं कि मर जाते हैं।

हम इस कदर पत्थर बन चुके हैं कि १७ विस्फोटों के बावजूद हमारी संवेदनाएं नहीं जागीं. शायद इसलिए कि सड़क पर पडी उन क्षत-विक्षत लाशों में को हमारा परिवार वाला नहीं था. शायद हमें इंतजार है विस्फोटों की अगली फेहरिस्त का जिसमे हम खो दे कुछ अपनों को....कुछ रिश्तों को.....और रह जायें चाँद यादें! आंसू भी जज्ब हो जायें आँखों की कब्र में और बचें खून के वो कतरे जो गिरें उन सैकडों मासूम और बेगुनाह मृतकों के सजदे में।

शुक्रवार, मार्च 21, 2008


होली की ढेर सारी शुभकामनायें



शनिवार, जून 02, 2007



चलो यहाँ से कहीँ दूर.....


अब तक मैंने गांवों और छोटे शहरों के लोगों को ही करीब से देखा था और उनकी पारिवारिक स्थिति के बारे में जानने का मौक़ा मिला था, पर दिल्ली के सात साल के इस सफ़र में महानगरीय जीवन को नजदीक से समझने का मौक़ा मिला। छोटे शहर के सुस्त और आराम तलब जिन्दगी से निकल कर जब देश कि राजधानी में क़दम रखा तो टेलिविज़न पर दिखने वाली ये रंगीन दुनिया नज़र आयी और यहीं से शुरुआत हुई अजनबी रास्ते पर जिन्दगी के अनजान सफ़र की।
नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से बाहर निकलने पर पहले तो आटो रिक्शा वालों की भीड़ दिखायी दीं लेकिन धीरे-धीरे ये रिक्शों का जत्था लंबी और चमकीली गाड़ियों की भीड़ में तब्दील हो गईं । ये गाडियां और भी आकर्षक तब प्रतीत होने लगी जब इनमें सूट और छोटे कपड़ों में नर-नारियां आपस में उन्मुक्त हो कर बातचीत करते दिखायी दिए। महानगर का यह कार्पोरेट स्टाइल आँखों के रास्ते दिल में उतर गया। यहाँ की बड़ी गाडियां, बडे बंगले और बडे लोग इस महानगर की शान में चार चांद लगाते नज़र आने लगे। यहाँ तो बंगलों और दफ्तरों के बाहर खडे सुरक्षा गार्ड भी वेल ड्रेस में नज़र आ रहे थे और मज़े की बात कि वो वहाँ आने-जाने वालों का स्तर उनके कपड़ों से ही जान लेते थे और ये सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है। बशीर बद्र ने लोगों की इस सोंच को अपने दो मिसरों के आईने में उतारने की बेहतरीन कोशिश की है-

यहाँ लिबास की कीमत है आदमी की नहीं,
मुझे गिलास बडे दे शराब कम कर दे।

मैं भी यहाँ की रवायत को समझने की कोशिश करने लगा। वैसे भी अपमानित होना किसी को पसंद नहीं होता। इसलिये 'जैसा देश वैसा वेश' की तर्ज पर मैंने भी अपने पुराने चोगे उतार नए कपडे पहने और चप्पलों की भीड़ से निकल जूतों की जमात में शामिल हो मैं भी जेंटअल मैंन बनने का ख्वाब देखने लगा। अब तो मेरे जूते भी आईने की तरह चमकने लगे और मैंने भी ये सिद्धान्त आपना लिया कि 'जूते आदमी के व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा और अटूट पहचान हैं '।

खैर, सफ़र जारी रह और ये सोंच भी कुछ समय तक मुझ पर हावी रही। 'वेल्ल ड्रेस' में होने के कारन दफ्तरों से ले कर पंच सितारा होटलों तक कहीँ किसी सुरक्षा कर्मी ने नहीं रोका और वहां के अधिकारियों से भी पर्याप्त इज्जत मिली।

वक़्त ने मुझे न्यूज़ चैनलों की दहलीज पर पहुँचा दिया। यहाँ के अनुभव और भी अनोखे रहे। यहाँ तो अदभुत दृश्य दिखाई दिए जो आमतौर पर अंसल प्लाजा और पीवीआर अनुपम और प्रिया के आसपास भी नहीं दिखती। मज़े की बात तो यह रही कि इसमे भी मुझे खुला आमंत्रण मिला। पर सिद्धांतों और नैतिकता को धारण किये हुए मैं इनसे कन्नी कटता रह जिसकी मुझे पर्याप्त सज़ा मिली। किसी के बढ़े हुए हाँथ को ना थामना भी गुनाह था। और वैसे भी गुनाहों के देवता इस कलयुग में भरे पडे हैं,यह फिर किसी धर्मवीर भारती को बताने की ज़रूरत नहीं पडी।

मैं हमेशा खुद से यह सवाल करता रहा कि बचपन से ही हमें गाँधी जी के तीन बंदरों की कहानियाँ क्यों सुनायी जाती रही, पंचतंत्र की कहानियाँ क्यों सुनायी गयी और नैतिकता का पाठ क्यों पढाया जाता रहा। यदि चरित्रहीनता और अनैतिक करतूतों से ही हम आगे बढ सकते हैं तो हम सभी को बचपन से ही इसमे पारंगत बनाने की कोशिश करनी चाहिऐ थी। और वैसे भी नकारात्मक चीजों को आदमी तुरंत अपना लेता है। बहरहाल, इस सवाल का जवाब ना आजतक मुझे मिला है और ना कोई मुझे बता पाया।
दिल्ली आकर गीता में लिखित द्रष्टा भाव से कर्म करने की बात में सार्थकता नज़र आयी। इसे अपनाने में भी बहुत मज़ा आया। अब तो हर समय और हर जगह 'कैरेक्टर रीडिंग' शुरू हो गयी। मैं जहाँ भी जाता, वहाँ के लोगों के कामकाज को देखता और उसके पीछे जुडे हुए मानवीय सोंच का मुल्यांकन करने की कोशिश करता रहा। अंसल प्लाजा के प्रेमी युगल से लेकर eएस्कौन्मंदिर के झूमते-नाचते भक्तों तक, बच्चों से लेकर उम्रदराज़ लोगों तक, सबको द्रष्टा भाव से देखना शुरू किया। इससे लोगों की सोंच के बारे में एक अवधारणा बनाने में बड़ी मदद मिली।

आम आदमी के मनोभाव समझने की कोशिश ने मन को थादे समय के लिए इसमें उलझाये तो जरूर रखा लेकिन सत्य कि तलाश जारी रही। समाज को समझने की इस प्रक्रिया में जीवन को समझने का प्रयास कम नहीं हुआ। घुटन मेरी जिन्दगी का हिस्सा बन गयी। यदि दिल्ली की सड़कों पर कोई हादसा हो, दफ्तर में किसी के साथ कोई अन्याय हो या कही भी किसी भी स्तर पर आम आदमी का शोषण होने की बात सामने आती, तो इसका दुःख मुझे पहले की तरह ही होता रहा। ये समाज किस दिशा में जा रहा है? व्यक्तिगत स्वार्थ की इस यात्रा में लोग कहॉ तक और चलेंगे? अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए ये विशेष वर्ग आम आदमी का इस्तेमाल काब तक करते रहेंगे और आम आदमी कब तक महज़ दो वक़्त की रोटी के लिए दिन-रात अपना ख़ून जलाता रहेगा? हममें विशेष बनने की ये चाहत कब ख़त्म होगी?.........चिन्तन कभी चिन्ता में बदला और चिन्ता कभी चिन्तन में।
अब तो चिन्तन जिन्दगी का एक अटूट हिस्सा बन गया है। रोटी के इंतजाम के बाद जब कभी इस तरफ सोंचता हूँ तो पीडा बढ जाती है....इस हालत में उंगलियां कम्प्यूटर के की-बोर्ड पर थिरकती हैं...कुछ शब्द स्क्रीन पर उभरते हैं और जीं कुछ हल्का हो जाता है। जब दर्द हद से गुज़रता दिखायी देता है तो दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल के दो मिसरे जेहन में उभरने लगते हैं-

यहाँ दरख्तों के साए में धूप लगती है
चलो यहाँ से कहीँ दूर और उम्र भर के लिए......